MP Board Class 8th Solution For Hindi Medium Hindi Grammar म.प्र. बोर्ड कक्षा 8th का संपूर्ण हल हिन्दी व्याकरण

म.प्र. बोर्ड कक्षा 8th का संपूर्ण हिन्दी व्याकरण

भाषा

अपनी बात कहने या दूसरे के विचार जानने के दो साधन हैं – वाणी या मौखिक तथा लिखित। इसे ही भाषा कहते हैं।

अतः भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा हम बोलकर या लिखकर अपने विचार प्रकट करते हैं और दूसरों के विचार जान सकते हैं। भाषा शब्दों और वाक्यों के शुद्ध प्रयोग का मेल है। अतः शब्द और वाक्य भाषा के महत्वपूर्ण अंग हैं।

भाषा बातचीत का वह साधन है, जिसके द्वारा हम अपने भाव या विचार बोलकर या लिखकर दूसरों तक पहुँचाते हैं।

भाषा के रूप-
(क) मौखिक,
(ख) लिखित।

भाषा का मूल रूप मौखिक है। भाषा के लिखित रूप में अपने विचार प्रकट करते हैं और पढ़कर दूसरों के विचार ग्रहण करते हैं।

लिपि- भाषा के लिखित रूप का आधार लिपि होती है। भाषा के लिखने के ढंग को लिपि कहते हैं।

भारत की राष्ट्रभाषा व हमारी मातृभाषा हिन्दी है। हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है जो सदैव बाएँ से दाएँ लिखी जाती हैं

अंग्रेजी भाषा की लिपि रोमन है। इसे भी बाएँ से दाएँ लिखा जाता है। उर्दू भाषा की लिपि फारसी है जो दाएँ से बाएँ लिखी जाती है। संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी है।

व्याकरण-व्याकरण वह शास्त्र है, जिसके द्वारा हमें भाषा के शुद्ध रूप का तथा नियमों का ज्ञान होता है। वर्ण-मुख से निकलने वाली छोटी से छोटी ध्वनि वर्ण कहलाती है। इसके टुकड़े नहीं किए जा सकते।

वर्णमाला-वर्गों के समूह को वर्णमाला कहते हैं।

वर्ण के प्रकार-वर्ण दो प्रकार के होते हैं-
(क) स्वर,
(ख) व्यंजन।

स्वर-हिन्दी वर्णमाला में ग्यारह स्वर होते हैं जो निम्नलिखित हैं
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ। .

व्यंजन-हिन्दी वर्णमाला में कुल अड़तीस (33 + 2 + 3) व्यंजन हैं।
क, ख, ग, घ, ङ।। च, छ, ज, झ, ञ।। ट, ठ, ड, (ड),। ढ (ढ़), ण।। त, थ, द, ध, न।। प, फ, ब, भ, म।। य, र, ल, व।। श, ष, स, ह।। क्ष, त्र, ज्ञ (संयुक्त व्यंजन)

संयुक्त अक्षर-संयुक्त अक्षर का अर्थ है-मेल या जोड़। अक्षर का अर्थ है-वर्ण। दो वर्ण मिलकर जिस वर्ण या अक्षर को बनाते हैं उसे संयुक्त अक्षर कहते हैं। संयुक्त अक्षर और उनसे बनने वाले शब्द हैं-

  • क् + ष = क्ष,
  • त् + र = त्र,
  • ज् + अ = ज्ञ,
  • श् + र = श्र।

शब्दों के शुद्ध रूप-भाषा को शुद्ध पढ़ने-लिखने के लिए उसके शुद्ध रूप और शुद्ध उच्चारण का ज्ञान बहुत आवश्यक है। हिन्दी भाषा में हम जैसा बोलते हैं, उसी रूप में हम लिखते भी हैं

संज्ञा

परिभाषा-किसी भी व्यक्ति, स्थान, वस्तु, भाव या अवस्था के नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे-रवि, सुभाष, गीता, पूजा, भारत, दिल्ली, पुस्तक, कलम, खुशी, दुःख, प्रेम, बुढ़ापा, बचपन, जवानी आदि।

संज्ञा के भेद-

  1. जातिवाचक –जिस शब्द से किसी सम्पूर्ण जाति का बोध होता हो, उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं; जैसे-छात्र, छात्राएँ, वृक्ष, स्त्री आदि।
  2. व्यक्तिवाचक -किसी विशेष स्थान या वस्तु का बोध कराने वाले शब्द को व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं; जैसे-गंगा, जयपुर, मोहन लाल।
  3. भाववाचक संज्ञा -जिस शब्द से किसी अवस्था, धर्म, भाव, गुण और दोष का बोध हो, उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं; जैसे-बुढ़ापा, सुपुत्र, सत्यता, मिठास, खटास।

लिंङ्ग

हिन्दी भाषा में लिंङ्ग दो प्रकार के हैं-

  • पुल्लिङ्ग,
  • स्त्रीलिङ्ग।

पुरुष जाति का पता पुल्लिङ्ग से और स्त्री जाति का पता स्त्रीलिङ्ग से चलता है। लिङ्ग का अर्थ होता है-चिह्न अथवा निशान। संज्ञा की पहचान लिङ्ग से होती है। स्त्री या पुरुष जाति के रूप की जानकारी भी लिङ्ग से होती है।

वचन

वचन का सम्बन्ध संख्या से होता है। संख्या के आधार पर संज्ञा शब्द-एकवचन और बहुवचन होते हैं। एक का बोध कराने वाले एकवचन तथा एक से अधिक का बोध कराने वाले बहुवचन होते हैं।

सर्वनाम

परिभाषा -संज्ञा के स्थान पर प्रयोग किए जाने वाले शब्द सर्वनाम कहे जाते हैं। जैसे-तुम, हम, मैं आदि।

सर्वनाम के भेद-

  1. पुरुषवाचक सर्वनाम-किसी व्यक्ति के बदले बोले जाने वाले शब्द पुरुषवाचक सर्वनाम कहे जाते हैं; जैसे-तुम, हम, मैं आदि। पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन पुरुष होते हैं-
    1. उत्तम पुरुष-जो शब्द बात कहने वाले व्यक्ति के लिए प्रयोग किए जाते हैं, वे उत्तम पुरुष के सर्वनाम होते हैं। जैसे-हम, हमारी, मैं, मेरा, मुझे।
    2. मध्यम पुरुष-जिससे कोई बात कही जाती है, उसके लिए प्रयुक्त शब्द मध्यम पुरुष के होते हैं। जैसे-तुम, तुम्हारा, तू।
    3. अन्य पुरुष-जिसके विषय में कुछ कहा जाता है, वह अन्य पुरुष का शब्द होता है। जैसे-वह, उन्हें, उनको।
  2. निश्चयवाचक सर्वनाम-निश्चित संज्ञाओं के लिए प्रयुक्त सर्वनाम निश्चयवाचक सर्वनाम कहे जाते हैं; जैसे-यह राम की पुस्तक है। मोहन की पुस्तक वह है। भिक्षुक आया है, उसे भिक्षा दो। इन वाक्यों में यह, वह, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम हैं।
  3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम-किसी व्यक्ति या वस्तु का निश्चित बोध न हो; जैसे-कोई आ रहा है। कुछ कहते हैं। इन वाक्यों में कोई और कुछ अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं।
  4. प्रश्नवाचक सर्वनाम-इस सर्वनाम का प्रयोग प्रश्न पूछने के लिए या कुछ जानकारी प्राप्त करने के लिए करते हैं; जैसे-क्या किया जा रहा है ? कौन आ रहा है ?
  5. सम्बन्धवाचक सर्वनाम-दो संज्ञाओं अथवा दो सर्वनामों का सम्बन्ध बताने वाले शब्द सम्बन्धवाचक सर्वनाम होते हैं; जैसे-यह वही कलम है जो मैंने कल दिया था। ‘जो’ शब्द सम्बन्धवाचक है।
  6. निजवाचक सर्वनाम-जो सर्वनाम वाक्य के कर्ता के लिए प्रयोग किए जाते हैं, उन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते हैं; जैसे-मैं स्वयं वहाँ गया। वे अपने-आप यह कार्य करेंगे।

विशेषण

परिभाषा-संज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता प्रकट करने वाले शब्द विशेषण कहे जाते हैं;
जैसे-

  1. छोटा बालक।
  2. वीर सिपाही। छोटा और वीर क्रमशः बालक और सिपाही की विशेषता बता रहे हैं। अतः ये शब्द विशेषण हैं।

विशेष्य-जिन शब्दों की विशेषता बतायी जाती है, वे विशेष्य होते हैं। ऊपर के वाक्य में ‘छोटा’ शब्द विशेषण है और बालक विशेष्य है।

विशेषण के भेद-

  1. गुणवाचक विशेषणगुणवाचक विशेषण किसी संज्ञा या सर्वनाम के गुण या दोष तथा रंग-अवस्था को प्रकट करता है; जैसे-चतुर छात्र, नीला कमल, सफेद बिल्ली। इनमें क्रमशः चतुर, नीला, सफेद शब्द गुणवाचक विशेषण हैं।
  2. संख्यावाचक विशेषण-संज्ञा या सर्वनाम की संख्या बताने वाले शब्द संख्यावाचक विशेषण कहे जाते हैं; जैसे- मेरे पास पाँच पुस्तकें हैं। पुस्तकों की संख्या पाँच हैं। अतः पाँच संख्यावाचक विशेषण है।
  3. परिमाणवाचक विशेषण-किसी संज्ञा या सर्वनाम की नाप या तौल बताने वाले शब्द परिमाणवाचक विशेषण कहे जाते हैं;  जैसे-
    1. दो किलो चावल,
    2. चार किलो दूध। इन वाक्यों में क्रमशः शब्द दो और चार किलो परिमाणवाचक विशेषण हैं।
  4. संकेतवाचक विशेषण-जो शब्द किसी संज्ञा या सर्वनाम की ओर संकेत करते हैं, उन्हें संकेतवाचक विशेषण कहते हैं; जैसे-
    1. यह फूल सुन्दर है।
    2. वे आदमी खेल रहे हैं।
    3. उस बगीचे में बालक खेल रहे हैं। इन वाक्यों में यह, वे और उस शब्द फूल, आदमी तथा बगीचे की ओर संकेत कर रहे हैं। अतः वे संकेतवाचक विशेषण हैं।
  5. व्यक्तिवाचक विशेषण-व्यक्तिवाचक संज्ञा से बने शब्द व्यक्तिवाचक विशेषण कहे जाते हैं; जैसे-मुझे कश्मीरी शॉल पसन्द है। इस वाक्य में ‘कश्मीरी’ व्यक्तिवाचक विशेषण है जो व्यक्तिवाचक संज्ञा ‘कश्मीर’ से बना है और शॉल की विशेषता बता रहा है।
  6. प्रश्नवाचक विशेषण-संज्ञा के विषय में किसी संज्ञा का बोध होता हो, तब वह शब्द प्रश्नवाचक विशेषण कहा जायेगा; जैसे-तुम्हारी कौन-सी कलम है ? इस वाक्य में कौन-सी’ शब्द प्रश्नवाचक विशेषण है जो कलम शब्द की विशेषता बता रहा है।

क्रिया

परिभाषा-जिन शब्दों से किसी काम का करना या होना पाया जाता है, उन्हें क्रिया कहते हैं। जैसे-मोहन पत्र लिखता है। इस वाक्य में लिखता है’ क्रिया है।

क्रिया के भेद-
(1) सकर्मक क्रिया-कर्ता के माध्यम से जिस क्रिया का प्रभाव कर्म पर पड़ता है, वह सकर्मक होती है;
जैसे-

  • रवि पत्र लिखता है।
  • राजेश गेंद से खेलता है। इन वाक्यों में क्रमशः लिखता है, खेलता है क्रिया ‘सकर्मक’ है।

(2) अकर्मक क्रिया-जिस क्रिया का प्रभाव कर्त्ता तक ही सीमित हो, वह क्रिया अकर्मक होती है;
जैसे-

  • वह खाता है।

वह पढ़ता है। इन वाक्यों में खाता है, पढ़ता है क्रियाओं का प्रभाव उनके कर्ता ‘वह’ तक ही सीमित रहता है। अतः ये अकर्मक क्रियाएँ हैं।

क्रिया-विशेषण

परिभाषा-जिस शब्द से किसी क्रिया पद की विशेषता बताई जाती है; उसे क्रिया-विशेषण कहते हैं; जैसे-राधा तेज चलती है। इस वाक्य में ‘तेज’ शब्द क्रिया-विशेषण है। ‘तेज’ शब्द ‘चलती है’ क्रिया की विशेषता है।

क्रिया-विशेषण के भेद

  1. स्थानवाचक क्रिया-विशेषण-‘क्रिया’ के किए जाने के स्थान को प्रकट करने वाले शब्द ‘स्थानवाचक क्रिया-विशेषण’ कहे जाते हैं। स्थानवाचक क्रिया-विशेषण निम्नलिखित हैं-बाहरी, भीतर, अन्दर, ऊपर, नीचे, यहाँ, वहाँ, दूर, निकट, आगे, पीछे आदि; जैसे-श्यामलाल अन्दर पढ़ रहा है। इस वाक्य में ‘अन्दर’ शब्द स्थानवाचक क्रिया-विशेषण है।
  2. कालवाचक क्रियाविशेषणक्रिया के किए जाने के समय (काल) को प्रकट करने वाले शब्द ‘कालवाचक क्रिया-विशेषण’ कहे जाते हैं; जैसे-वह अब रेलगाड़ी से आयेगा। इस वाक्य में अब’ कालवाचक क्रिया-विशेषण है।
  3. परिमाणवाचक क्रिया-विशेषण-क्रिया की नापतौल अथवा परिमाण को प्रकट करने वाले शब्द ‘परिमाणवाचक क्रिया-विशेषण’ कहे जाते हैं; जैसे-किशोर कम बोलता है। इस वाक्य में ‘कम’ ‘बोलता है’ क्रिया की विशेषता बताने के कारण क्रिया-विशेषण है।
  4. रीतिवाचक क्रिया-विशेषण-क्रिया की रीति या ढंग को प्रकट करने वाले शब्द ‘रीतिवाचक क्रिया-विशेषण’ कहे जाते हैं; जैसे-वह धीरे-धीरे चलता है। इस वाक्य में ‘धीरे-धीरे’ शब्द रीतिवाचक क्रिया-विशेषण है। इसके अन्य शब्द हैं-अचानक, तेज, सचमुच, एकाएक, धीरे-धीरे आदि।

सम्बन्ध बोधक

परिभाषा-जो संज्ञा या सर्वनाम शब्दों का सम्बन्ध वाक्य के अन्य शब्दों से प्रकट करते हैं, वे सम्बन्ध बोधक कहे जाते हैं; जैसे-यह राम की पुस्तक है। इस वाक्य में ‘की’ शब्द से राम और पुस्तक के सम्बन्ध को प्रकट किया जा रहा है।

समुच्चय बोधक

परिभाषा-समुच्चय बोधक शब्द दो वाक्यों अथवा दो _ शब्दों को एक-दूसरे से जोड़ते हैं अथवा अलग करते हैं। ये शब्द निम्नलिखित हैं-और, तथा, या, व, वा, अथवा, क्योंकि, यद्यपि, यदि, लेकिन, पर, मगर, परन्तु, अर्थात्, मानो, यानि इत्यादि; जैसे-राधाचरण और श्यामलाल गाँव के सम्पन्न किसान हैं। इस वाक्य में ‘और’ शब्द समुच्चयबोधक है। राधाचरण, श्यामलाल शब्दों को ‘और’ से जोड़ा गया है।

विस्मयादि

बोधक परिभाषा-जिन शब्दों से हर्ष, शोक, घृणा, आशीष, विस्मय, स्वीकार आदि प्रकट होते हैं, उन्हें विस्मय बोधक कहते हैं।

विस्मय बोधक शब्द निम्नलिखित हैं-
अहा !, वाह !, खूब !, शाबाश !, हाय !, राम रे !, छि:-छिः !, धिक्-धिक !, चिरंजीव रहो !, जीते रहो !, अरे !, जी जहाँ !, अच्छा।, हाँ-हाँ ! आदि। जैसे-हे राम ! यह तो बहुत गजब की बात है। इस वाक्य में ‘हे राम !’ शब्द विस्मयादिबोधक है।

काल

परिभाषा-क्रिया के जिस रूप से उसके होने के समय का ज्ञान हो, उसे काल कहते हैं।
काल के भेद-काल के तीन भेद होते हैं-

  1. वर्तमान काल,
  2. भूत काल,
  3. भविष्य काल।

(1) वर्तमान काल-जिस क्रिया से किसी कार्य का अभी (मौजूदा समय में) किया जाना पाया जाए, उसे वर्तमान काल की क्रिया कहते हैं; जैसे-‘मोहन पढ़ रहा है’। इस वाक्य में पढ़ रहा है’ क्रिया वर्तमान काल की है।
(2) भूत काल-जिस क्रिया से बीते समय में काम का किया जाना या होना पाया जाए, तो उसे भूतकाल कहते हैं; जैसे-‘मैंने अपने वस्त्र धोए थे।’ इस वाक्य में ‘धोए थे’ भूत काल की क्रिया है।
(3) भविष्य काल-आगे आने वाले समय में किसी कार्य के होने या किए जाने की बात जिस क्रिया से प्रकट हो रही हो, यह भविष्य काल की क्रिया कही जाएगी; जैसे-मोहन कल (आने वाला दिन) दिल्ली जाएगा। इस वाक्य में जाएगा’ क्रिया भविष्य काल की है।

वाच्य

परिभाषा-वाच्य से क्रिया में कर्ता अथवा कर्म अथवा भाव की प्रधानता को जाना जाता है।

वाच्य भेद-

  1. कर्तृवाच्य,
  2. कर्मवाच्य,
  3. भाववाच्य।

(1) कर्तृवाच्य-जिस क्रिया के लिङ्ग और वचन, कर्ता के अनुसार होते हैं, वह क्रिया कर्तृवाच्य की होती है; जैसे-मोहन जल पीता है। इस वाक्य में कर्ता पुल्लिङ्ग है, तो क्रिया भी ‘पीता है’ और वह एकवचन में कर्ता के अनुसार प्रयुक्त हुई है।
(2) कर्मवाच्य-किसी वाक्य की क्रिया अपने कर्म के लिङ्ग और वचन में प्रयुक्त हो, वह कर्मवाच्य की क्रिया कही जाती है; जैसे-“मोहन के द्वारा पत्र लिखा गया।” यहाँ कर्म के अनुसार लिङ्ग, वचन बदल गया।
(3) भाववाच्य-भाववाच्य की क्रिया पर कर्म और कर्ता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। भाववाच्य की क्रिया एकवचन, पुल्लिङ्ग और अन्य पुरुष में रहती है; जैसे-सर्दी में बाहर निकला नहीं जाता। इस वाक्य में निकला जाता’ भाववाच्य की क्रिया है।

कारक

परिभाषा-संज्ञा और सर्वनाम के रूपों का सम्बन्ध वाक्यों के अन्य शब्दों को विशेष रूप से क्रिया से जाना जाता है, कारक कहा जाता है; जैसे-मोहन पुस्तक पढ़ता है। इस वाक्य में मोहन और पुस्तक में कारक प्रयुक्त है, इसका दोनों शब्दों का सम्बन्ध ‘पढ़ता है’ क्रिया से है।

विभक्ति-कारक का ज्ञान कराने वाले चिह्न विभक्ति कहे जाते हैं किन्तु कभी-कभी इन विभक्ति चिह्नों का लोप हो जाता है।

  1. कर्ता कारक-कार्य करने वाला कर्ता होता है; जैसे-रवि पत्र लिखता है। इस वाक्य में ‘रवि’ कर्ता है।
  2. कर्म कारक-जिस पर क्रिया का प्रभाव कर्ता के माध्यम से पड़ता है, वह कर्म होता है; जैसे-रवि पत्र लिखता है। इस वाक्य में ‘पत्र’ पर ‘लिखता है’ ‘क्रिया का प्रभाव कर्ता रवि के माध्यम से पड़ता है।
  3. करण कारक-जिसके द्वारा या जिसकी सहायता से काम किया जाता हो, उसे करण कारक कहते हैं; जैसे-राम कलम से पत्र लिखता है। इस वाक्य में कलम से या कलम की सहायता से पत्र को लिखा जाता है। अतः इसमें ‘कलम’ में करण कारक है।
  4. सम्प्रदान कारक-जिसके लिए कर्ता कार्य करता है, वहाँ सम्प्रदान कारक होता है; जैसे-ममता बच्चों के लिए फल लाती है। इस वाक्य में बच्चों के लिए’ में सम्प्रदान कारक है।
  5. अपादान कारक-जिससे किसी वस्तु का अलग होना बताया जा रहा हो, वहाँ अपादान कारक होता है; जैसे-छत से बालक गिर पड़ा। इस वाक्य में ‘छत से’ में अपादान कारक है।
  6. सम्बन्ध कारक-एक वस्तु या व्यक्ति का दूसरी वस्तु या पुरुष से सम्बन्ध बताने पर सम्बन्ध कारक होता है; जैसे-यह मोहन की पुस्तक है। इस वाक्य में मोहन का अधिकार (सम्बन्ध) पुस्तक पर ‘की’ के द्वारा प्रकट होता है।
  7. अधिकरण कारक-वाक्य में संज्ञा का आधार जिसके द्वारा प्रकट होता है, वहाँ अधिकरण कारक होता है। जैसे-छात्र कक्षा में पढ़ता है। इस वाक्य में छात्र के पढ़ने का आधार कक्षा’ होने से कक्षा में अधिकरण कारक है।
  8. सम्बोधन कारक-किसी को पुकारा जाय या सावधान किया जाए, वहाँ सम्बोधन कारक होता है; जैसे-हे रवि ! तुम यहाँ आओ। इस वाक्य में ‘हे’ शब्द सम्बोधन कारक का है।

वाक्य विचार

परिभाषा-वाक्य ऐसे शब्द समूह को कहते हैं, जिनके, सुनने से कहने वाले की पूरी बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जाए; जैसे-छात्रो ! तुम लिखो। इस वाक्य का आशय स्पष्ट हो जाता है कि छात्रों को लिखने के लिए कहा गया है।

वाक्य भेद-वाक्य भेद तीन प्रकार के होते हैं-

  1. साधारण वाक्य,
  2. मिश्रित वाक्य,
  3. संयुक्त वाक्य।

(1) साधारण वाक्य-जिस वाक्य में एक ही क्रिया हो और वह उस वाक्य के अर्थ को पूरा करती हो, तो वह वाक्य साधारण होगा; जैसे-राधा पुस्तक पढ़ती है। इस वाक्य में पढ़ती है’, एक क्रिया है और इस वाक्य के अर्थ को पूरा करती है। अतः यह साधारण वाक्य है।
(2) मिश्रित वाक्य-जिस वाक्य में एक प्रधान उपवाक्य और एक या अधिक आश्रित उपवाक्य हों, उसे मिश्रित वाक्य कहते हैं। सामान्यतः प्रधान वाक्य और आश्रित उपवाक्य के बीच-कि, जो, जिसने, जिसे, तब, जहाँ-तहाँ जैसे संयोजक शब्द होते हैं। आश्रित उपवाक्य तीन प्रकार के होते हैं-संज्ञा आश्रित, विशेषण आश्रित और क्रिया-विशेषण आश्रित उपवाक्य।

  • संज्ञा आश्रित उपवाक्य-प्रधान उपवाक्य किसी संज्ञा के बदले में आने वाला उपवाक्य है। यह ‘कि’ संयोजक शब्द से जुड़ा रहता है; जैसे-मोहन कह रहा है कि वह कल नहीं आयेगा।
  • विशेषण आश्रित उपवाक्य-ये प्रधान उपवाक्य की संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाते हैं। ये उपवाक्य ‘जो’, ‘जिसे’, ‘जिसने’, ‘जिन्हें’ आदि शब्दों से जुड़े रहते हैं; जैसे-तुम्हारा पैन अच्छा लगता है, जो तुमने मुझे कल दिया था।
  • क्रिया-विशेषण आश्रित उपवाक्य-प्रधान उपवाक्य की क्रिया की विशेषता बताने वाले उपवाक्य क्रिया-विशेषण उपवाक्य होते हैं। ऐसे वाक्यों में जब, जैसे, वैसे, जितना आदि संयोजक शब्द आते हैं; जैसे-जब हम टिकिट खरीदेंगे, तब प्लेटफार्म पर जाएँगे।

(3) संयुक्त वाक्य-संयुक्त वाक्य में एक प्रधान वाक्य और एक या अधिक उपवाक्य समानाधिकरण (समकक्ष) वाले होते हैं। संयुक्त वाक्य में दो उपवाक्य-और या अथवा, किन्तु, परन्तु आदि से जुड़े होते हैं; जैसे-वह गरीब है परन्तु ईमानदार भी है।

वाक्य रचना की विशेषताएँ।

शुद्ध वाक्य के गुण-वाक्य में कुछ गुण (विशेषताएँ) होती हैं। वे निम्नलिखित हैं

  • आकांक्षा-आकांक्षा का अर्थ है वाक्य में शब्दों का सम्बन्ध जानने की इच्छा। वाक्य का एक पद सुनते ही उसके विषय में जानने की इच्छा होती है; जब तक कि वाक्य पूरा हो जाता है।
  • योग्यता-वाक्य में प्रयुक्त शब्दों में अर्थ प्रकट करने की योजना हो। जैसे-घोड़ा घास पीता है। (घास खाई जाती है-वह घास को पीता नहीं है।)
  • सार्थकता-वाक्य में निरर्थक शब्दों का प्रयोग न हो। जैसे-वह पैन वैन लेता है। (इस वाक्य में ‘वैन’ निरर्थक शब्द है।)
  • पद क्रम-वाक्य में शब्दों का एक विशेष पद क्रम होता है।
  • अन्वय-व्याकरण की दृष्टि से वचन, लिंग, कारक, क्रिया आदि की सम्बद्धता हो।
  • आसक्ति-बोलने और लिखने में वाक्य में प्रयुक्त शब्दों में समीपता होनी चाहिए।

वाक्य के घटक तत्व-वाक्य के घटक तत्व दो होते हैं-

  • उद्देश्य,
  • विधेय।

वाक्य विग्रह (वाक्य विश्लेषण)
वाक्य विभिन्न अंगों से मिलकर बनता है। इन अंगों को अलग करके उनके सम्बन्ध को बताना ही वाक्य विश्लेषण या वाक्य विग्रह कहलाता है।

  1. वाक्य में जिनके विषय में कुछ कहा जाता है, उसे उद्देश्य कहते हैं।
  2. वाक्य में उद्देश्य के बारे में जो कुछ कहा जाता है, उसे विधेय कहते हैं। जैसे-गाँधी जी महान् पुरुष थे। इस वाक्य में ‘गाँधी जी’ उद्देश्य हैं और ‘महान् पुरुष थे’ यह विधेय है। उद्देश्य सदैव कर्त्ता होता है। वहाँ कर्ता के विशेषण आदि भी सम्मिलित रहते हैं। विधेय में कर्म, क्रिया, पूरक और उनकी विशेषता सूचक शब्द मिले रहते हैं।

इन सबको अलग-अलग करके इनका सम्बन्ध बताना ही वाक्य विग्रह है।
(1) साधारण वाक्यों का विग्रह वाक्य-

  • वीर सुभाष चन्द्र बोस ने विदेशी शासन को उखाड़ने के लिए जान गवाँ दी।
  • दिल्ली का लाल किला दर्शनीय है।

(2) मिश्रित वाक्यों का विग्रह
मिश्रित वाक्यों का विश्लेषण (विग्रह) करते समय क्रिया के आधार पर उपवाक्यों को अलग करके फिर उनके सम्बन्ध और स्थिति का विवेचन करना चाहिए;

जैसे-
(1) राम ने सीता को बहुत समझाया कि उन्हें वन में नहीं जाना चाहिए।
विश्लेषण-(अ) राम ने सीता को बहुत समझाया-प्रधान उपवाक्य।
(ब) उन्हें वन में नहीं जाना चाहिए-आश्रित संज्ञा उपवाक्य।
उपवाक्य (अ) के आश्रित ‘समझाया’ क्रिया का कर्म।
(स) कि-संयोजक। सम्पूर्ण वाक्य एक मिश्रित उपवाक्य है।

(2) मेरे पास एक कुत्ता है, जो बहुत होशियार है।
विश्लेषण-(अ) मेरे पास एक कुत्ता है-प्रधान उपवाक्य।
(ब) जो बहुत होशियार है-आश्रित विशेषण उपवाक्य। उपवाक्य
(अ) के आश्रित, कुत्ता की विशेषता बताता है। सम्पूर्ण वाक्य एक मिश्रित वाक्य है।

(3) संयुक्त वाक्यों का विग्रह
संयुक्त वाक्यों में प्रधान उपवाक्यों और उनके आश्रित उपवाक्यों को छाँटकर उनकी स्थिति और सम्बन्ध प्रकट करके उनका विश्लेषण किया जाता है; जैसे

वाक्य-आइए बैठिए, और कहिए कि विद्यार्थी जो आपसे = मिलना चाहता है, कितना बुद्धिमान है।

विश्लेषण
(अ) आइए-प्रधान उपवाक्य।
(ब) बैठिए-प्रधान उपवाक्य। उपवाक्य ‘अ’ का समान पदी।
(स) और-संयोजक।
(द) देखिए-प्रधान उपवाक्य
(ब) का समान पदी।
(य) कि वह विद्यार्थी कितना बुद्धिमान है-आश्रित संज्ञा उपवाक्य। ‘देखिए’ क्रिया का कर्म।
(र) जो आपसे मिलना चाहता है-आश्रित विशेषण उपवाक्य। उपवाक्य ‘य’ में विद्यार्थी संज्ञा की विशेषता बताता है। सम्पूर्ण वाक्य संयुक्त वाक्य है।

अनुतान-जब हम बोलते हैं, तब हमारा लहजा बदलता रहता है। शब्दों को हमेशा एक ही लहजे में न बोलकर। उतार-चढ़ाव के साथ बोलते हैं। बोलने में आए इन उतार-चढ़ावों के अन्तर को सुर-परिवर्तन कहते हैं।

हिन्दी में सुर-परिवर्तन या सुर का उतार-चढ़ाव तो मिलता। है पर इसके कारण शब्दों का अर्थ नहीं बदलता। हिन्दी में ई सुर-परिवर्तन वाक्य के स्तर पर कार्य करता है, अर्थात् वाक्य का
अर्थ बदल देता है जब सुर-परिवर्तन से वाक्य का अर्थ बदल जाता है तब वह अनुतान कहलाता है; जैसे
मोहन जाएगा। (सामान्य कथन)
मोहन जाएगा ? (प्रश्नवाचक)
मोहन जाएगा ! (विस्मयसूचक)

विराम चिह्न

परिभाषा-वाक्य या वाक्यांश को बोलने के बाद अर्थ को स्पष्ट करते हुए जब हम रुकते हैं तो उसे विराम कहते हैं।
जैसे-

  • राधा ! कार्य करो।

भाषा के बोलने में और लिखने में उसके भाव और अर्थ को स्पष्टता देने के लिए विराम चिह्नों का प्रयोग करना आवश्यक है। मुख्य विराम चिह्न निम्नलिखित हैं
(1) अल्प विराम (,), (2) अर्द्ध विराम (;), (3) पूर्ण विराम (1), (4) संयोजक चिह्न (-), (5) निर्देशक चिह्न (:-), (6) प्रश्नवाचक चिह्न (?), (7) विस्मयादि बोधक चिह्न (!), (8) उद्धरण चिह्न (” “), (9) कोष्ठक चिह्न (()), __ (10) विवरण चिह्न (-)।

  1. अल्प विराम -इसका प्रयोग बहुत कम समय रुकने के लिए किया जाता है; जैसे-राधा, मोहनी और नीना पढ़ती हैं।
  2. अर्द्ध विराम चिह्न-अल्प विराम की अपेक्षा कुछ अधिक समय तक रुकने के लिए अर्द्ध विराम का प्रयोग करते हैं; जैसे-महात्मा गाँधी महापुरुष थे; सारा विश्व जानता है।
  3. पूर्ण विराम चिह्न-वाक्य के अर्थ के पूर्ण होने पर वाक्य के अन्त में प्रयोग करते हैं; जैसे-वह आजकल इधर आता-जाता दिखाई नहीं देता है।
  4. संयोजक चिह्न-दो प्रधान शब्दों के सम्बन्ध को प्रकट करने के लिए इस चिह्न का प्रयोग करते हैं; जैसे-राम-लक्ष्मण, भाई-बहन।
  5. निर्देशक चिह्न-इस चिह्न का प्रयोग संवाद, कथोपकथन, वार्तालाप के नाम के बाद किया जाता है; जैसे-मोहनकल तो वर्षा हो रही थी, मैं कैसे आता।
  6. प्रश्नवाचक चिह्न-जिन वाक्यों में प्रश्न पूछने का भाव स्पष्ट होता हो, वहाँ प्रश्नवाचक चिह्न (?) प्रयोग किया जाता है; जैसे-तुम क्या करते हो ?
  7. विस्मयादि बोधक चिह्न-हर्ष, विषाद, घृणा और आश्चर्य के भाव को प्रकट करने के लिए इस चिह्न का प्रयोग होता है; जैसे-अरे ! इस तरह की धूप में चले आए।
  8. ऊद्धरण चिह्न-किसी बात को ज्यों का त्यों दुहराने के लिए इस चिह्न का प्रयोग करते हैं; जैसे-बुद्ध ने कहा, “अहिंसा परम धर्म है।”
  9. कोष्ठक चिह्न-वाक्य में किसी विशिष्ट पद को स्पष्ट करने के लिए इस चिह्न का प्रयोग करते हैं। जैसे- मैं (राम प्रकाश) अब स्वयं उपस्थित हूँ।
  10. विवरण चिह्न-किसी बात को आगे निर्दिष्ट करने के लिए इस चिह्न का प्रयोग करते हैं; जैसे-आगे लिखे बिन्दुओं को समझकर अपनी भाषा में लिखो

अनुस्वार और आनुनासिक

अनुस्वार-अनुस्वार का अर्थ है स्वर के बाद आने वाली। ध्वनि। इसको नासिका व्यंजन कहते हैं। इसे स्वर या व्यंजन के ऊपर लगाते हैं। अनुस्वार शब्द के मध्य या अन्त में ही आ सकता है, शब्द के प्रारम्भ में नहीं। यह जिस व्यंजन के पहले आता है, उसी व्यंजन के वर्ग की (पंचम वर्ण) नासिका ध्वनि के रूप में इसका उच्चारण किया जाता है।


आज मानक रूप में पंचम वर्ण के स्थान पर (‘) अनुस्वार का चिह्न मान्य है।

आनुनासिक-(*) यह चिह्न चन्द्र बिन्दु कहलाता है। इसका उच्चारण आनुनासिक होता है। आनुनासिक स्वरों का गुण है। जब इसका उच्चारण होता है, तब हवा मुख के साथ नाक से भी निकलती है।
ठाँव, हँस शब्द पर (*) लगा है।

चन्द्र बिन्दु (*) लगाने के निम्नलिखित नियम हैं-
(क) जिन स्वर मात्राओं का कोई भी हिस्सा शिरोरेखा से बाहर नहीं निकलता तो आनुनासिक के लिए (*) का प्रयोग करते हैं; जैसे-साँस, कुआँ, पाँव।
(ख) जिन स्वरों की मात्राओं का कोई भाग शिरोरेखा के ऊपर निकल जाता है, तब चन्द्र बिन्दु के स्थान पर (‘) का ही प्रयोग होता है; जैसे-चोंच, कोंपल।

सन्धि

परिभाषा-दो या दो से अधिक अक्षरों के मेल से जो विकार या परिवर्तन होता है, उसे सन्धि कहते हैं;
जैसे-

  • देव + आराधना = देवाराधना।

सन्धि भेद-सन्धि तीन होती हैं-

  1. स्वर सन्धि,
  2. व्यंजन सन्धि,
  3. विसर्ग सन्धि।

(1) स्वर सन्धि -स्वर (अ आ, इ ई, उ ऊ, ऋ, लु, ए ऐ, ओ औ) के आगे अन्य या समान स्वर के आने से जो विकार पैदा होता है, उसे स्वर सन्धि कहते हैं; जैसे-वन + औषधि = वनौषधि। विद्या + अर्थी = विद्यार्थी।

स्वर सन्धि के पाँच भेद होते हैं-वे निम्नलिखित हैं-

  1. दीर्घ सन्धि-हस्व या दीर्घ स्वर के बाद, उसी स्वर के आने पर उन दोनों के मेल से जो दीर्घ स्वर बनता है; उसे दीर्घ सन्धि कहते हैं; जैसे-राजा + आज्ञा = राजाज्ञा। वधू + उत्सव = वधूत्सव। रवि + इन्द्र = रवीन्द्र।।
  2. गुण सन्धि-अ या आ के बाद इ ई के आने पर (अ आ + इ ई) ए हो जाता है और अ या आ के बाद उ ऊ आने पर (अ आ + उ ऊ) ओ हो जाता है। अ आ के बाद ऋ के आने पर ‘अर्’ हो जाता है; जैसे-राघव + इन्द्र = राघवेन्द्र। हित + उपदेश = हितोपदेश। महा + इन्द्र = महेन्द्र। महा + ऋषि = महर्षि।
  3.  वृद्धि सन्धि-अ आ के बाद ए ऐ के आने पर ‘ऐ’ हो जाता है तथा अ आ के बाद ओ औ आए तो ‘औ’ हो जाता है। इस मेल को वृद्धि सन्धि कहते हैं; जैसे-तथा + एव = तथैव (आ + ए = ऐ); महा + ओध = महौध (आ + ओ = औ)।
  4. यण सन्धि-जब इ ई उ ऊ ऋ के आगे असमान स्वर आए, तो इ ई का ‘य’ उ ऊ का ‘व’ और ऋ का र् हो जाता है। इस मेल को ‘यण’ कहते हैं; जैसे-यदि + अपि = यद्यपि; इति + आदि = इत्यादि; सु + आगत = स्वागत; वधु + आगमन = वध्वागमन; मातृ + आज्ञा = मात्राज्ञा।
  5. अयादि सन्धि-यदि ए ऐ, ओ औ के बाद जब कोई भिन्न स्वर आता है, तो इनके स्थान पर क्रमशः अय्, अव्, आव् हो जाता है; जैसे-ने + अन = नयन; नै + अक = नायक; पो + अन = पवन; पौ + अक = पावक।

(2) व्यंजन सन्धि-एक व्यंजन के बाद दूसरे व्यंजन के आने पर या किसी स्वर के आने पर जो विकार पैदा होता है, उसे व्यंजन सन्धि कहते हैं; जैसे-जगत् + ईश = जगदीश; जगत् + नाथ = जगन्नाथ।

व्यंजन सन्धि के नियम-

  • किसी वर्ग के प्रथम अक्षर के बाद जब कोई स्वर, आए तो वर्ग के प्रथम अक्षर का उसी वर्ग के तृतीय अक्षर में परिवर्तन हो जाता है; जैसे-दिक् + अंबर = दिगम्बर (क् + अ = ग), सत् + आनन्द = सदानन्द (त् + आ = द्)।
  • यदि क, च, ट, त, प (वर्ग के प्रथम अक्षर) के बाद किसी भी वर्ग का तीसरा अथवा चौथा व्यंजन अथवा स्वर आए, तो वर्ग के प्रथम अक्षरों-क, च, ट, त, प का क्रमशः अपने ही वर्ग का तृतीय अर्थात् ग, ज, ड, द, ब हो जाता है; जैसे-सत् + जन् = सज्जन, दिक् + गज = दिग्गज।
  • यदि ‘त’ वर्ग के आगे ‘च’ वर्ग आए तो ‘त’ वर्ग का ‘च’ वर्ग हो जाता है; जैसे-सत् + चित् = सच्चित्।
  • ‘त्’ के आगे ‘ल’ आने पर त् का ल् हो जाता है; जैसे-तत् + लीन = तल्लीन।
  • यदि त्’ के आगे ‘श’ आए तो ‘त्’ का ‘च’ तथा ‘श’ का ‘छ’ हो जाता है; जैसे-सत् + शिष्य = सच्छिष्य।
  • यदि ‘छ’ के पहले कोई स्वर हो तो ‘छ’ के स्थान ‘च्छ’ हो जाता है; जैसे-वि + छेद = विच्छेद, आ + छादन = आच्छादन।
  • यदि किसी वर्ग के अक्षर से अनुस्वार प्रयुक्त हो तो वह अपने ही वर्ग का पाँचवाँ अक्षर हो जाता है; जैसे-सम् + चार = संचार, सम् + चय = संचय।
  • यदि त् या द् के बाद ट् या द आए तो त् या द् का ट् हो जाता है; जैसे-तत् + टीका = तट्टीका।
  • यदि त् या द् के बाद ड् या द आए तो त् या द् का ड हो जाता है; जैसे-उत् + डयन = उड्डयन।
  • जब त् या द् के बाद ‘ह’ आए तो ह का द् होकर ‘त’ वर्ग का चतुर्थ हो जाता है; जैसे-उत् + हरण = उद्धरण।
  • यदि ‘स’ से पहले ‘इ ई’ स्वर आए तो स का ‘ष’ हो जाता है। जैसे-वि + सम = विषम, अभि + सेक = अभिषेक।

(3) विसर्ग सन्धि-विसर्ग (:) में स्वर या व्यंजन का मेल होता है, तो इस होने वाले विकार (परिवर्तन) को विसर्ग सन्धि कहते हैं; जैसे-मनः + रम = मनोरम।

विसर्ग सन्धि के नियम-

  1. विसर्ग (:) के बाद ‘च’ या ‘छ’ के आने पर विसर्ग का ‘श्’ हो जाता है; जैसे-निः + चय = निश्चय।
  2. यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ और बाद में व्यंजन वर्गों का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ अथवा य र ल व आए तो विसर्ग का ‘ओ’ हो जाता है; जैसे-मनः + ज = मनोज, मनः + रथ = मनोरथ।
  3. विसर्ग के बाद ‘र’ व्यंजन के आने पर उसका पहला स्वर दीर्घ हो जाता है और विसर्ग (:) का लोप हो जाता है; जैसे-निः + रोग = नीरोग, निः + रव = नीरव, निः + रज = नीरज।
  4. विसर्ग से पूर्व स्वर या ‘ड’ होने पर और विसर्ग (:) के आगे क ख फ होने पर विसर्ग (:) का ‘ष्’ हो जाता है; जैसे-दुः+ कर्म = दुष्कर्म, निः + काम = निष्काम। –
  5. विसर्ग के पहले अ आ को छोड़कर कोई अन्य स्वर आए और उसके बाद किसी भी व्यंजन वर्ग का तीसरा, चौथा या पाँचवाँ अक्षर आए अथवा य र ल व आए तो विसर्ग का ‘र’ हो जाता है; जैसे-निः + गत = निर्गत, निः + गुण = निर्गुण।
  6. यदि विसर्ग (:) के बाद. ‘अ’ को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर आए तो विसर्ग लुप्त हो जाता है; जैसे-अतः + एव = अतएव।
  7. विसर्ग (:) के बाद श ष स आएँ तो विसर्ग का श् ष स हो जाता है; जैसे-निः + शेष = निश्शेष, निः + संकोच = निस्संकोच।

उपसर्ग

परिभाषा-अपने स्वतन्त्र अर्थ से रहित वे शब्दांश जो किसी सार्थक शब्द से पहले जोड़ दिए जाने पर उसके अर्थ में परिवर्तन कर देते हैं, उन्हें उपसर्ग कहते हैं।

उदाहरण-


प्रत्यय

परिभाषा-जो पद शब्द के अन्त में प्रयुक्त होकर नए शब्द की रचना करते हैं और उससे अर्थ में परिवर्तन हो जाता है, उन्हें प्रत्यय कहते हैं।
उदाहरण-

समास

परिभाषा-दो या दो से अधिक शब्दों के मेल से जो नया शब्द बनता है, उसे उस शब्द समूह का समास कहते हैं।

समास भेद-
(1) अव्ययीभाव समास-जिस सामासिक पद में पूर्वपद की प्रधानता हो तथा वह अव्यय भी हो, तो वहाँ। अव्ययीभाव समास होता है। जैसे-

(2) तत्पुरुष समास-जिस सामासिक पद में दूसरे पद की। प्रधानता होती है और प्रथमा विभक्ति को छोड़कर सभी विभक्तियों पंचगवम् का विग्रह करने पर संकेत मिलता है, वहाँ तत्पुरुष समास होता है;
जैसे-

(3) द्विगु समास-जिस समास पद में पहला पद संख्यावाचक विशेषण हो और दूसरा पर विशेष्य हो, तो उस पद में द्विगु समास होता है;
जैसे-


(4) कर्मधारय समास-जिस समास पद में विशेषण और विशेष्य का योग हो, वहाँ कर्मधारय समास होता है;

जैसे-

(5) बहुब्रीहि समास-जिस समास पद में अन्य पद की प्रधानता होती है। वहाँ बहुब्रीहि समास होता है;

जैसे-

(6) द्वन्द्व समास -जिस समास पद में सभी पद प्रधान हों तथा विग्रह चलने पर ‘और’ से जुड़ा हो, वहाँ द्वन्द्व समास होता है;

जैसे-

अलंकार

(1) उपमा-समानता के कारण जहाँ दो वस्तुओं में तुलना। की जाय, वहाँ उपमा अलंकार होता है। उपमा के चार अंग होते

  • उपमेय-जिस व्यक्ति या वस्तु की किसी अन्य से तुलना की जाती है, उसे उपमेय कहा जाता है।
  • उपमान-जिस प्रसिद्ध व्यक्ति या वस्तु से उपमेय की समानता (तुलना) की जाए उसे उपमान कहा जाता है।
  • साधारण धर्म-उपमेय और उपमान में पाया जाने वाला समान गुण साधारण धर्म है।
  • वाचक शब्द-वाचक वे शब्द हैं जो उपमेय और उपमान में पाए जाने वाले गुण की समानता प्रकट करते हैं। समानता बताने के लिए-सी, जैसा, सम, सरिस, तुल्य आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

उदाहरण-

“नन्दन वन सी फूल उठी वह छोटी सी कुटिया मेरी”;

इस पंक्ति में कुटिया उपमेय है। ‘नन्दन वन’ उपमान है। ‘फूल। उठी’ साधारण धर्म है तथा ‘सी’ वाचक शब्द है।

(2) रूपक-उपमेय और उपमान के अभेद वर्णन को। रूपक अलंकार कहते हैं अर्थात् जब उपमेय को उपमान का रूप दे दिया जाता है, तो वहाँ रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण-

‘अति आनन्द उमगि अनुरागा।
चरन सरोज पखारन लागा॥’

इन पंक्तियों में चरन-सरोज (उपमेय और उपमान) में अभेद आरोप लगाया है। अतः यहाँ रूपक अलंकार है।

(3) उत्प्रेक्षा-जहाँ एक वस्तु में दूसरी वस्तु (उपमेय में उपमान) की सम्भावना (होने की भावना) प्रकट की जाए, तो – वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उदाहरण-

सोहत ओढ़े पीत पटु स्याम सलोने गात।
मनहु नीलमणि सैल पर, आतप परयौ प्रभात॥’

कवि ने इन पंक्तियों में श्रीकृष्ण के साँवले शरीर पर धारण किये हुए पीले वस्त्र से नीलमणि के पर्वत पर सुबह के समय पड़ने वाली धूप की उत्प्रेक्षा की है।

(4) अनुप्रास-जिस पद्य में व्यंजन वर्णों (शब्दों) की। आवृत्ति बार-बार हो और वे कविता की सुन्दरता को बढ़ावा दे रहे हों तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
उदाहरण-

तुलसी मनरंजन रंजित अंजन नैन सुखंजन जातक से।
सजनी सीस में समसील उभै नवनील सरोरुह ले विकसे॥’

इन पंक्तियों में ‘ज’ तथा ‘स’ की आवृत्ति अनेक बार होने के कारण अनुप्रास अलंकार है।

रस

परिभाषा-रस काव्य की आत्मा है। काव्य के पढ़ने से, सुनने और देखने से (नाटक आदि) जिस आनन्द की अनुभूति होती है उसे ‘रस’ कहते हैं। तात्पर्य यह है कि स्थायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

रस के अंग-रस के अंग चार होते हैं-

  1. स्थायी भाव,
  2. विभाव,
  3. अनुभाव,
  4. संचारी भाव।

रस दस प्रकार के होते हैं-


छन्द विधान

छन्द रचना की जानकारी देने वाले शास्त्र को पिंगल शास्त्र कहते हैं।
छन्द-निश्चित गति और यति के क्रम से जो काव्य रचना होती है, उसे छन्द कहते हैं। ‘गति’ का अर्थ ‘प्रवाह’ और ‘यति’ का अर्थ ‘विराम’ होता है।

छन्द के प्रकार-छन्द दो प्रकार के होते हैं-
(1) मात्रिक,
(2) वार्णिक (वर्णवृत्त)।

  1. मात्रिक छन्द-इनकी रचना मात्राओं की गिनती के आधार पर होती है।
  2. वर्णवृत्त (वार्णिक) छन्द-वर्णवृत्त छन्दों में वर्ण (अक्षर) की गणना का नियम रहता है।

छन्द के अंग-चरण, यति, गति, मात्रा, तुक, गण छन्द के अंग हैं।

  1. चरण-छन्द पंक्तियों में बँटा रहता है और पंक्ति चरण में अर्थात् छन्द की पंक्ति के एक भाग को चरण कहते हैं।
  2. यति-छन्द में जहाँ अल्प समय के लिए रुकना पड़े,। वह यति कहलाती है।
  3. गति-छन्द के प्रवाह को गति कहते हैं।
  4. तुक-छन्द के चरणों के अन्त में समान वर्ण आने को। तुक कहते हैं।
  5. तुकान्त-जब चरणान्त में समान वर्ण आएँ तब तुकान्त। स्थिति होती है।
  6. अतुकान्त-छन्द के अन्त में असमान वर्ण आते हैं तब। अतुकान्त स्थिति होती है।
  7. मात्रा-किसी स्वर के उच्चारण में जो समय लगता। है, उसे मात्रा कहते हैं।

मात्राएँ दो प्रकार की होती हैं-

  1. ह्रस्व और
  2. दीर्घ।

ह्रस्व मात्रा (लघु)-इसके उच्चारण में कम समय लगता। है। ह्रस्व स्वर की एक मात्रा गिनी जाती है। इसका चिह्न।’ है।। अ, इ, उ, ऋ स्वर की मात्रा ह्रस्व है।
दीर्घ मात्रा (गुरु)-ह्रस्व स्वर से दीर्घ मात्रा के उच्चारण में। दुगुना समय लगता है। इसकी दो मात्राएँ गिनी जाती हैं। इसका। चिह्न ‘इ’ है। आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ स्वर की मात्राएँ दीर्घ मात्राएँ होती हैं।

पाठ्यक्रम में निर्धारित मात्रिक छन्द-दोहा, सोरठा, चौपाई,। रोला तथा कुण्डलियाँ हैं।
(1) दोहा-यह मात्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं।। इसके विषम चरणों (पहले और तीसरे) में 13-13 मात्राएँ तथा सम चरणों (दूसरे और चौथे) में 11-11 मात्राएँ होती हैं।

उदाहरण-
।ऽ ऽ। ऽ ऽ।ऽ ऽऽ ऽऽ ऽ। = (13-11)
हरी डारि ना तोड़िए, लागै छूरा बान।
ऽ। ।ऽऽ ऽ।। ।। ऽ ऽ ऽ ऽ। = (13-11)
दास मलूका यों कहै, अपना सा जी जान।

(2) सोरठा-यह मात्रिक छन्द, दोहा का उल्टा है। इसके विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ तथा सम चरणों में 13-13 मात्राएँ। होती हैं।
उदाहरण-
ऽ।। । । । । ऽ। । । । । ऽ । । । । । । ।
फूलहि फलहि न बेंत, जदपि सुधा बरषहिं जलद।
(पहला चरण-11 मात्राएँ) (दूसरा चरण 13 मात्राएँ)
ऽ।। ।।। । ऽ। ऽ।।। । । । । । । । ।
मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंचि सम।।
(तीसरा चरण-11 मात्राएँ) (चौथा चरण-13 मात्राएँ)

(3) चौपाई-यह मांत्रिक छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। तथा प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण-
मंजु विलोचन मोचन वारी। बोली देखि राम महतारी।।
ऽ। ।ऽ। । ऽ।। ऽऽ +ऽऽऽ। ऽ। ।।ऽ (16 + 16)
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सास-ससुर परिजनहि पियारी।
ऽ। । । । । । । । । । ।ऽऽ+ऽ ।।।। ।।।।। ऽऽ (16 + 16)

(4) रोला-यह मात्रिक छन्द है। इसमें चार-चार चरण होते हैं, इसके प्रत्येक चरण में 11, 13 पर यति देकर 24 मात्राएँ होती हैं। दो चरणों के अन्त में तुक रहती है।
उदाहरण-

नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है।
सूर्य चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं।
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मण्डल हैं।
बन्दीजन खगवृन्द, शेष फन सिंहासन है।

(5) कुण्डलियाँ-दोहा और रोला मिलकर कुण्डलियाँ छन्द बनता है। इसमें दोहा का अन्तिम चरण, रोला का प्रथम चरण होता है तथा कुण्डलियाँ जिस शब्द से प्रारम्भ होती है, उसी से वह समाप्त होती है। दोहा के विषम चरणों में 13-13 तथा सम चरणों में 11-11 मात्राएँ होती हैं तथा रोला में 11-13 तथा यति देकर 24 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण-

दौलत पाइ न कीजिए, सपने में अभिमान।
चंचल जल दिन चारिको, ठाँउं न रहत निदान॥
ठाँउं न रहित निदान, जियत जग में जस लीजै।
मीठे वचन सुनाइ, विनय सबही सौं कीजै॥
कह गिरधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निस दिन चारि, रहत सब ही के दौलत॥


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