MP Board Class 10th History Solution Chapter 4 : औद्योगीकरण का युग

इतिहास – भारत और समकालीन विश्व-II (History: India and The Contemporary World – II )

Chapter 4 : औद्योगीकरण का युग

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • ई. टी. पॉल म्यूजिक कम्पनी ने सन् 1900 में संगीत की एक किताब प्रकाशित की थी जिसकी जिल्द पर दी गई तस्वीर में नयी सदी के उदय का ऐलान किया था।
  • औद्योगीकरण को अक्सर हम कारखानों के विकास के साथ ही जोड़कर देखते हैं।
  • इंग्लैण्ड में सबसे पहले 1730 के दशक में कारखाने खुले लेकिन उनकी संख्या में तेजी से इजाफा अठारहवीं सदी के आखिर में ही हुआ।
  • तेजी से बढ़ता हुआ कपास उद्योग 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था।
  • 1840 के दशक से इंग्लैण्ड में और 1860 के दशक से उनके उपनिवेशों में रेलवे का विस्तार होने लगा था। फलस्वरूप लोहे और स्टील की जरूरत तेजी से बढ़ी।
  • जेम्स वॉट ने न्यूकॉमेन द्वारा बनाए गए भाप के इंजन में सुधार किए और 1871 में नए इंजन को पेटेंट करा लिया।
  • ब्रिटेन में उन्नीसवीं सदी के मध्य में 500 तरह के हथौड़े और 45 तरह की कुल्हाड़ियाँ बनाई जा रही थीं।
  • उन्नीसवीं सदी के मध्य में सबसे अच्छे हालात में भी लगभग 10 प्रतिशत शहरी आबादी निहायत गरीब थी। •
  • मशीनी उद्योगों के युग से पहले अन्तर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का ही दबदबा रहता था।
  • 1772 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसर हेनरी वतूलो ने कहा था कि भारतीय कपड़े की माँग कभी कम नहीं हो सकती क्योंकि दुनिया के किसी और राष्ट्र में इतना अच्छा माल नहीं बनता।
  • 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल लगाने वाले मारवाड़ी व्यवसायी सेठ हुकुमचन्द थे।
  • 1907 में जे. एन. टाटा ने जमशेदपुर में भारत का पहला लौह एवं इस्पात संयंत्र स्थापित किया।  
  • बम्बई में पहली कपड़ा मिल 1854 में लगी और दो साल बाद उसमें उत्पादन होने लगा।  1862 तक वहाँ ऐसी चार मिलें काम कर रही थीं।  
  • 1901 में भारतीय फैक्ट्रियों में 5,84,000 मजदूर कार्य करते थे। 1946 तक यह संख्या बढ़कर 24,36,000 हो चुकी थी।
  • 1900 से 1912 तक भारत में सूती कपड़े का उत्पादन दो गुना हो गया। उन्नीसवीं सदी के आखिर तक देश के विभिन्न क्षेत्रों के व्यवसायी मिलकर चेम्बर ऑफ कॉमर्स बनाने लगे थे।
  • भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापन बनाए तो उनमें राष्ट्रवादी सन्देश साफ दिखाई देता था।

पाठान्त अभ्यास

संक्षेप में लिखें

प्रश्न 1. निम्नलिखित की व्याख्या करें

(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किए।

(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे।

(ग) सूरत बन्दरगाह अठारहवीं सदी के अन्त तक हाशिये पर पहुँच गया था।

(घ) ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था।

उत्तर-

(क) ब्रिटेन की महिला कामगारों ने स्पिनिंग जेनी मशीनों पर हमले किए – स्पिनिंग जेनीजेम्स हरग्रीब्ज द्वारा 1764 में बनाई गई इस मशीन ने कताई की प्रक्रिया तेज कर दी और श्रमिकों की माँग घटा दी। एक ही पहिया घुमाने वाला एक मजदूर बहुत सारी तकलियों को घुमा देता था और एक साथ कई धागे बनने लगते थे।

हमले का कारण – बेरोजगारी की आशंका के कारण मजदूर नयी प्रौद्योगिकी से चिढ़ते थे। जब ऊन उद्योग में स्पिनिंग जेनी मशीन का प्रयोग शुरू किया गया तो हाथ से ऊन कातने वाली औरतें इस तरह की मशीनों पर हमला करने लगीं। जेनी के इस्तेमाल पर यह टकराव लम्बे समय तक चलता रहा।

(ख) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँवों में किसानों और कारीगरों से काम करवाने लगे-

(1) सत्रहवीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों के सौदागर गाँव की तरफ रुख करने लगे थे। वे किसानों और कारीगरों को पैसा देते थे और उनसे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उत्पादन करवाते थे। उस समय विश्व व्यापार के विस्तार और विश्व के विभिन्न भागों में उपनिवेशों की स्थापना के कारण वस्तुओं की माँग बढ़ने लगी थी।

(2) गाँवों में गरीब काश्तकार और दस्तकार सौदागरों के लिए कार्य करने लगे। काम चलाने वाले छोटे किसान (काँटेजर) और निर्धन किसान आय के नए स्रोत ढूँढ़ रहे थे। इसीलिए जब सौदागर वहाँ आए और उन्होंने माल पैदा करने के लिए पेशगी रकम दी तो किसान फौरन तैयार हो गए। सौदागरों के लिए कार्य करते हुए वे गाँव में ही रहते हुए अपने छोटे-छोटे खेतों को भी संभाल सकते थे।

(3) इस व्यवस्था से शहरों और गाँवों के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित हुआ। सौदागर रहते तो शहरों में थे लेकिन उनके लिए काम ज्यादातर देहात में चलता था।

(4) उत्पादन के प्रत्येक चरण में प्रत्येक सौदागर 20-25 मजदूरों से काम करवाता था। इसका आशय यह था कि कपड़ों के हर सौदागर के पास सैकड़ों मजदूर काम करते थे।

(ग) सूरत बन्दरगाह अठारहवीं सदी के अन्त तक हाशिये पर पहुँच गया था-

(1) गुजरात के तट पर स्थित सूरत बन्दरगाह के जरिए भारत खाड़ी और लाल सागर के बन्दरगाहों से जुड़ा हुआ था। कोरोमण्डल तट पर मछलीपटनम और बंगाल में हुगली के माध्यम से भी दक्षिण-पूर्वी एशियाई बन्दरगाहों के साथ खूब व्यापार चलता था।

(2) 1750 के दशक तक भारतीय सौदागरों के नियन्त्रण वाला यह नेटवर्क टूटने लगा था। यूरोपीय कम्पनियों की ताकत बढ़ती जा रही थी। पहले उन्होंने स्थानीय दरबारों से कई तरह की रियायतें हासिल की और उसके बाद उन्होंने व्यापार पर इजारेदारी अधिकार प्राप्त कर लिए। इससे सूरत व हुगली दोनों पुराने बन्दरगाह कमजोर पड़ गए। इन बन्दरगाहों से होने वाले निर्यात में नाटकीय कमी आई।

(3) पहले जिस कर्जे से व्यापार चलता था वह खत्म होने लगा। धीरे-धीरे स्थानीय बैंकर दिवालिया हो गए। सत्रहवीं सदी के आखिरी सालों में सूरत बन्दरगाह से होने वाले व्यापार कर कुल मूल्य ₹ 1.6 करोड़ था। 1740 के दशक तक यह गिरकर केवल ₹ 30 लाख रह गया था।

(घ) ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में बुनकरों पर निगरानी रखने के लिए गुमाश्तों को नियुक्त किया था-ईस्ट इंडिया कम्पनी की राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाने के बाद कम्पनी व्यापार पर अपने एकाधिकार का दावा कर सकती थी। परिणामस्वरूप उसने प्रतियोगिता समाप्त करने, लागतों पर नियन्त्रण रखने और कपास व रेशम से बनी वस्तुओं की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रबन्धन और नियन्त्रण की व्यवस्था लागू कर दी। इस कार्य को निम्न चरणों में किया गया

(1) कम्पनी ने कपड़ा व्यापार में सक्रिय व्यापारियों और दलालों को समाप्त करने तथा बुनकरों पर ज्यादा प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित करने की कोशिश की। कम्पनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी तैनात कर दिए जिन्हें ‘गुमाश्ता’ कहा जाता था।

(2) कम्पनी को माल बेचने वाले बुनकरों को अन्य खरीददारों के साथ कारोबार करने पर रोक लगा दी गई। इसके लिए उन्हें पेशगी रकम दी जाती थी। एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कर्जा दे दिया जाता था। जो कर्जा लेते थे उन्हें अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे किसी और व्यापारी को नहीं बेच सकते थे।

(3) जल्दी ही बहुत सारे बुनकर गाँवों में बुनकरों और गुमाश्तों के बीच टकराव की खबरें आने लगीं। नए गुमाश्ता बाहर के लोग थे। उनका गाँवों से पुराना सामाजिक सम्बन्ध नहीं था। सजा के तौर पर बुनकरों को अक्सर पीटा जाता था और कोड़े बरसाए जाते थे। अब बुनकर न तो दाम पर मोलभाव कर सकते थे और न ही किसी और को माल बेच सकते थे। उन्हें कम्पनी से जो कीमत मिलती थी वह बहुत कम थी पर वे कों की वजह से कम्पनी से बँधे हुए थे।

प्रश्न 2. प्रत्येक वक्तव्य के आगे ‘सही’ या ‘गलत’ लिखें

(क) उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की कुल श्रम शक्ति का 80 प्रतिशत तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में काम कर रहा था।

(ख) अठारहवीं सदी तक महीन कपड़े के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार पर भारत का दबदबा था।

(ग) अमेरिकी गृहयुद्ध के फलस्वरूप भारत के कपास निर्यात में कमी आई।

(घ) फ्लाई शटल के आने से हथकरघा कामगारों की उत्पादकता में सुधार हुआ।

उत्तर- (क) सत्य, (ख) सत्य, (ग) असत्य, (घ) सत्य।

प्रश्न 3. पूर्व-औद्योगीकरण का मतलब बताएँ।

उत्तर -पूर्व-औद्योगीकरण  – इंग्लैण्ड और यूरोप में फैक्ट्रियों की स्थापना से भी पहले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के लिए बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन होने लगा था। यह उत्पादन फैक्ट्रियों में नहीं होता था। बहुत सारे इतिहासकार औद्योगीकरण के इस चरण को आदि-औद्योगीकरण (Proto-industrialisation) का नाम देते थे।

यह आदि-औद्योगिक व्यवस्था व्यवसायिक आदान-प्रदान के नेटवर्क का हिस्सा थी। इस पर सौदागरों का नियन्त्रण था और चीजों का उत्पादन कारखानों की बजाय घरों में होता था। उत्पादन के प्रत्येक चरण में प्रत्येक सौदागर 20-25 श्रमिकों से काम करवाता था।

चर्चा करें

प्रश्न 1. उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता क्यों देते थे?

उत्तर-उन्नीसवीं सदी के यूरोप में कुछ उद्योगपति मशीनों की बजाय हाथ से काम करने वाले श्रमिकों को प्राथमिकता निम्न कारणों से देते थे

(1) विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में मानव श्रम की कोई कमी नहीं थी। गरीब किसान और बेकार लोग कामकाज की तलाश में बड़ी संख्या में शहरों को जाते थे। जब श्रमिकों की बहुतायत होती तो वेतन कम हो जाते। इसलिए, उद्योगपतियों को श्रमिकों की कमी या वेतन के मद में भारी लागत जैसी कोई परेशानी नहीं थी। उन्हें ऐसी मशीनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी जिनके कारण श्रमिकों से छुटकारा मिल जाए।

(2) बहुत सारे उद्योगों में श्रमिकों की माँग मौसमी आधार पर घटती-बढ़ती रहती थी। गैसघरों और शराबखानों में जाड़ों के दौरान ज्यादा काम रहता था। क्रिसमस के समय बुक बाइंडरों और प्रिंटरों को भी दिसम्बर से पहले अतिरिक्त श्रमिकों की आवश्यकता रहती थी। बन्दरगाहों पर जहाजों की मरम्मत और साफ-सफाई व सजावट का कार्य भी जाड़ों में ही किया जाता था। जिन उद्योगों में मौसम के साथ उत्पादन घटता-बढ़ता रहता था वहाँ उद्योगपति मशीनों की बजाय श्रमिकों को ही कार्य पर रखना पसन्द करते थे।

(3) बहुत सारे उत्पाद केवल हाथ से ही तैयार किए जा सकते थे। मशीनों से एक जैसे तय किस्म के उत्पाद ही बड़ी संख्या में बनाए जा सकते थे। बाजार में अक्सर बारीक डिजाइन और खास आकारों वाली चीजों की काफी माँग रहती थी।

(4) विक्टोरिया कालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग कुलीन और पूँजीपति वर्ग हाथों से बनी वस्तुओं को प्राथमिकता देते थे। हाथ से बनी चीजों को परिष्कार और सुरुचि का प्रतीक माना जाता था। उनकी फिनिश अच्छी होती थी। उनको एक-एक करके बनाया जाता था और उनका डिजाइन अच्छा होता था।

प्रश्न 2. ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या किया ?

उत्तर – ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारतीय बुनकरों से सूती और रेशमी कपड़े की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए निम्न प्रयास किए

(1) महीन उद्योगों के युग से पहले अन्तर्राष्ट्रीय कपड़ा बाजार में भारत के रेशमी और सूती उत्पादों का ही दबदबा रहता था।

(2) निर्यात व्यापार के इस नेटवर्क में बहुत सारे भारतीय व्यापारी और बैंकर सक्रिय थे। वे उत्पादन में पैसा लगाते थे, वस्तुओं को लेकर जाते और निर्यातकों को पहुँचाते थे।

(3) ईस्ट इंडिया कम्पनी की राजनीतिक सत्ता स्थापित हो जाने के बाद कम्पनी व्यापार पर अपने एकाधिकार का दावा कर सकती थी। फलस्वरूप उसने प्रतिस्पर्धा समाप्त करने, लागतों पर अंकुश रखने और कपास व रेशम से बनी वस्तुओं की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए प्रबन्धन और नियन्त्रण की एक नयी व्यवस्था लागू कर दी।

(4) कम्पनी ने बुनकरों पर निगरानी रखने, माल इकट्ठा करने और कपड़ों की गुणवत्ता जाँचने के लिए वेतनभोगी कर्मचारी तैनात कर दिए जिन्हें गुमाश्ता कहा जाता था।

(5) एक बार काम का ऑर्डर मिलने पर बुनकरों को कच्चा माल खरीदने के लिए कर्जा दे दिया जाता था। जो कर्जा लेते थे अपना बनाया हुआ कपड़ा गुमाश्ता को ही देना पड़ता था। उसे वे किसी और व्यापारी को नहीं बेच सकते थे।

(6) जैसे-जैसे कर्जे मिलते गए और महीन कपड़े की माँग बढ़ने लगी, ज्यादा कमाई की आस में बुनकर पेशगी स्वीकार करने लगे। अब बुनकर न तो दाम पर मोलभाव कर सकते थे और न ही किसी और को माल बेच सकते थे। उन्हें कम्पनी से जो कीमत मिलती थी वह बहुत कम थी पर वह कों की वजह से कम्पनी से बँधे हुए थे।

प्रश्न 3. कल्पना कीजिए कि आपको ब्रिटेन तथा कपास के इतिहास के बारे में विश्वकोश (Encyclopaedia) के लिए लेख लिखने को कहा गया है। इस अध्याय में दी गई जानकारियों के आधार पर अपना लेख लिखिए।

उत्तर – ब्रिटेन तथा कपास का इतिहास

(1) इंग्लैण्ड में सबसे पहले 1730 के दशक में कारखाने खुले, लेकिन उनकी संख्या में तेजी से इजाफा अठारहवीं सदी के आखिर में ही हुआ।

(2) कपास (कॉटन) नए युग का पहला प्रतीक थी। उन्नीसवीं सदी के आखिर में कपास के उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी हुई।

(3) 1760 में ब्रिटेन अपने कपास उद्योग की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए 25 लाख पौंड कच्चे कपास का आयात करता था। 1787 में यह आयात बढ़कर 220 लाख पौंड तक पहुँच गया। यह वृद्धि उत्पादन की प्रक्रिया में बहुत सारे बदलावों का परिणाम थी।

(4) अठारहवीं सदी में कई ऐसे आविष्कार हुए जिन्होंने उत्पादन प्रक्रिया (कार्डिंग, ऐंठना व कताई और लपेटने) के हर चरण की कुशलता बढ़ा दी। प्रति मजदूर उत्पादन बढ़ गया और पहले से ज्यादा मजबूत धागों व रेशों का उत्पादन होने लगा।

(5) रिचर्ड आर्कराइट ने सूती कपड़ा मिल की रूपरेखा सामने रखी। अभी तक कपड़ा उत्पादन पूरे देहात में फैला हुआ था। यह कार्य लोग अपने-अपने घर पर ही करते थे।

(6) लेकिन अब महँगी नयी मशीनें खरीदकर उन्हें कारखानों में लगाया जा सकता था। कारखानों में सारी प्रक्रियाएँ एक छत के नीचे और एक मालिक के हाथों में आ गई थीं। इसके चलते उत्पादन प्रक्रिया पर निगरानी गुणवत्ता का ध्यान रखना और मजदूरों पर नजर रखना सम्भव हो गया था।

(7) सूती उद्योग और कपास उद्योग ब्रिटेन के सबसे फलते-फूलते उद्योग थे। तेजी से बढ़ता हुआ कपास उद्योग 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था।

(8) जब इंग्लैण्ड में कपास उद्योग विकसित हुआ तो वहाँ के उद्योगपति दूसरे राष्ट्रों से आने वाले आयात को लेकर परेशान दिखाई देने लगे। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयातित कपड़े पर आयात शुल्क वसूल करे जिससे मैनचेस्टर में बने कपड़े बाहरी प्रतिस्पर्धा के बिना इंग्लैण्ड में आराम से बिक सकें। दूसरी तरफ ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर दबाव डाला कि वह ब्रिटिश कपड़ों को भारतीय बाजारों में बेचे।

प्रथम युद्ध के बाद भारतीय बाजार में मैनचेस्टर को पहले वाली हैसियत कभी हासिल नहीं हो पायी। आधुनिकीकरण न कर पाने और अमेरिका, जर्मनी व जापान के मुकाबले कमजोर पड़ जाने कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। कपास का उत्पादन बहुत कम रह गया था और ब्रिटेन से होने वाले सूती कपड़े के निर्यात में जबरदस्त गिरावट आई।

प्रश्न 4. पहले विश्व युद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा?

उत्तर-पहले विश्व युद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन काफी तीव्र गति से बड़ा जिसके निम्न कारण थे

(1) पहले विश्व युद्ध तक औद्योगिक विकास धीमा रहा। युद्ध ने एक बिलकुल नयी स्थिति पैदा कर दी थी।

(2) ब्रिटिश कारखाने सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए युद्ध सम्बन्धी उत्पादन में व्यस्त थे इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया।

(3) भारतीय बाजारों को रातोंरात एक विशाल देशी बाजार मिल गया। युद्ध लम्बा खिचा तो भारतीय कारखानों में भी फौज के लिए जूट की बोरियाँ, फौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खच्चर की जीन तथा बहुत सारे अन्य सामान बनने लगे। नए कारखाने लगाए गए।

(4) पुराने कारखाने कई पालियों में चलने लगे। बहुत सारे नए मजदूरों को काम पर रखा गया और हरेक को पहले से भी ज्यादा समय तक काम करना पड़ता था। युद्ध के दौरान औद्योगिक उत्पादन तेजी से बढ़ा।

अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न

वस्तुनिष्ठ प्रश्न  

बहु-विकल्पीय

प्रश्न 1. ई.टी.पॉल म्यूजिक कम्पनी ने किस सन में संगीत की एक किताब प्रकाशित की थी ?

(i) 1880 में

(ii) 1890 में

(iii) 1900 में

(iv) 1910 में।

2. इंग्लैण्ड में सबसे पहले किस दशक में कारखाने खुले ?

(i) 1730 के दशक में

(ii) 1750 के दशक में

(iii) 1770 के दशक में

(iv) 1790 के दशक में।

3. बम्बई में पहला कपड़ा मिल कब चालू हुआ?

(i) 1830 में

(ii) 1854 में

(iii) 1864 में

(iv) 1840 में।

4. भारत में सूती कपड़े का उत्पादन कब दोगुना हो गया ?

(i) 1900 से 1912 में

(ii) 1870 से 1895 में

(iii) 1910 से 1922 में

(iv) 1920 से 1930 में।

5. इनलैंड प्रिंटर्स में दो जादूगरों की तस्वीर कब प्रकाशित हुई थी?

(i) 15 फरवरी 1900 में

(ii) 26 जनवरी 1901 में

(iii) 14 फरवरी 1903 में

(iv) 20 जनवरी 1905 में।

6. बंगाल में देश का पहला जूट मिल कब शुरू हुआ ?

(i) 1810 में

(ii) 1822 में

(iii) 1842 में

(iv) 1855 में।

7. जेम्स वॉट ने भाप के इंजन का पेटेंट किस वर्ष में कराया ?

(i) 1871 में

(ii) 1881 में

(iii) 1891 में

(iv) 1901 में।

8. 1811-12 में सूती माल का हिस्सा कुल निर्यात में कितना था ?

(i) 43 प्रतिशत

(ii) 33 प्रतिशत

(iii) 22 प्रतिशत

(iv) 15 प्रतिशत।

उत्तर- 1. (iii), 2. (i), 3. (ii), 4. (i), 5. (ii), 6. (iv), 7. (i), 8. (ii).

रिक्त स्थान पूर्ति

1. इंग्लैण्ड के कपड़ा व्यवसायी …………… से ऊन खरीदते थे।

2. कपास (कॉटन) …………..” का पहला प्रतीक थी।

3. जेम्स वॉट ने …………” द्वारा बनाए गए भाप के इंजन में सुधार किए।

4. 1772 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अफसर ………….. ने कहा था कि भारतीय कपड़े की माँग कभी कम नहीं हो सकती।

5. बम्बई में पहली कपड़ा मिल सन …………… में लगी।

6. उद्योगपति नए मजदूरों की भर्ती के लिए प्रायः एक …………… रखते थे।

7. जब भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापन बनाए उनमें …………… सन्देश साफ दिखाई देता था।

उत्तर- 1. स्टेप्लर्स, 2. नये युग, 3. न्यूकॉमेन, 4. हेनरी पतूलो, 5. 1854, 6. जॉबर, 7. राष्ट्रवादी।  

सत्य/असत्य

1. 1840 के दशक से इंग्लैण्ड में और 1860 के दशक से उसके उपनिवेशों में रेलवे का विस्तार होने लगा था।

2. उन्नीसवीं सदी की शुरूआत तक पूरे इंग्लैण्ड में भाप के सिर्फ 120 इंजन थे।

3. विक्टोरियाकालीन ब्रिटेन में उच्च वर्ग के लोग कुलीन और पूँजीपति वर्ग हाथों से बनी वस्तुओं को महत्व देते थे।

4. बेरोजगारी की आशंका के कारण मजदूर नयी प्रौद्योगिकी को पसन्द करते थे। 5. पहले विश्व युद्ध तक यूरोपीय प्रबन्धकीय एजेन्सियाँ भारतीय उद्योगों के विशाल क्षेत्र का नियन्त्रण करती थीं।

उत्तर-1. सत्य, 2. असत्य, 3. सत्य, 4. असत्य, 5. सत्य।

सही जोड़ी मिलाइए

उत्तर-1. → (ग), 2. → (घ), 3. → (क),4. → (ख), 5. → (ङ)।

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. 1860 के दशक में कानपुर में कौन-सी मिल खोली गई थी?

2. 1900 ई. में किस म्यूजिक कम्पनी ने संगीत की किताब प्रकाशित की ?

3. औद्योगिक क्रान्ति सबसे पहले किस देश में प्रारम्भ हुई ?

4. जे. एन. टाटा ने भारत का लौह-इस्पात कारखाना कहाँ स्थापित किया ?

5. 1928 के ग्राइपवाटर के कैलेण्डर पर किस भगवान का चित्र अंकित था ?

6. स्पिनिंग जेनी मशीन किसके द्वारा बनाई गई थी ?

उत्तर-1. एल्गिन मिल, 2. ई. टी. पॉल, 3. इंग्लैण्ड, 4. जमशेदपुर, 5. बाल कृष्ण, 6. जेम्स हरग्रीब्ज।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. औद्योगिक उत्पादन से क्या आशय है?

उत्तर-जब हम औद्योगिक उत्पादन की बात करते हैं तो हमारा आशय फैक्ट्रियों में होने वाले उत्पादन से होता है।

प्रश्न 2. औद्योगिक मजदूरों से क्या आशय है ?

उत्तरजब हम औद्योगिक मजदूरों की बात करते हैं, तो हमारा आशय कारखानों में कार्य करने वाले मजदूरों से होता है।

प्रश्न 3. भारत में कौन-कौन से मुख्य पूर्व औपनिवेशिक बंदरगाहों से समुद्री व्यापार चलता था ?

उत्तर-गुजरात के तट पर स्थित सूरत बंदरगाह के जरिए भारत खाड़ी और लाल सागर के बंदरगाहों से जुड़ा हुआ था। कोरोमण्डल तट पर मछलीपटनम और बंगाल में हुगली के माध्यम से भी दक्षिण-पूर्वी एशियाई बंदरगाहों के साथ खूब व्यापार चलता था।

प्रश्न 4. जमशेदजी जीजीभोये कौन थे?

उत्तर- जीजीभोये एक पारसी बुनकर के बेटे थे। अपने समय के बहुत सारे लोगों की तरह उन्होंने भी चीन के साथ व्यापार और जहाजरानी का काम किया था। उनके पास जहाजों का विशाल बेड़ा था। अंग्रेज और अमेरिकी जहाज कम्पनियों के साथ प्रतिस्पर्धा के कारण 1850 के दशक तक उन्हें सारे जहाज बेचने पड़े।

प्रश्न 5. सेठ हुकुमचन्द कौन थे ?

उत्तर- सेठ हुकुमचन्द 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल लगाने वाले मारवाड़ी व्यवसायी थे जिन्होंने चीन के साथ व्यापार किया था।

प्रश्न 6. ‘जॉबर’ कौन थे?

उत्तर--इन्हें अलग-अलग इलाकों में ‘सरदार’ या ‘मिस्त्री’ आदि भी कहते थे। उद्योगपति नए मजदूरों की भर्ती के लिए प्रायः एक जॉबर रखते थे। जॉबर कोई पुराना और विश्वस्त कर्मचारी होता था।

प्रश्न 7. चेम्बर ऑफ कॉमर्स क्या था ?

उत्तर- उन्नीसवीं सदी के आखिर तक देश के विभिन्न क्षेत्रों के व्यवसायी मिलकर चेम्बर ऑफ कॉमर्स बनाने लगे थे ताकि सही तरह से व्यवसाय कर सकें और सामूहिक चिन्ता के मुद्दों पर फैसला ले सकें।

प्रश्न 8. उन्नीसवीं सदी के आखिर में बुनकरों और कारीगरों के सामने क्या समस्या आ गई ?

उत्तर- उन्नीसवीं सदी के आखिर में भारतीय कारखानों में उत्पादन होने लगा और बाजार मशीनों की बनी चीजों से पट गया था। ऐसे में बुनकर उद्योग किस तरह कायम रह सकता था ?

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. स्टेपलर, फुलर तथा कार्डिंग का अर्थ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- स्टेपलर – ऐसा व्यक्ति जो रेशों के हिसाब से ऊन को ‘स्टेपल’ करता है या छाँटता है।

फुलर – ऐसा व्यक्ति जो ‘फुल’ करता है यानी चुन्नटों के सहारे कपड़े को समेटता है।

कार्डिंग – वह प्रक्रिया जिसमें कपास या ऊन आदि रेशों को कताई के लिए तैयार किया जाता है।

प्रश्न 2. उन्नीसवीं सदी के मध्य तक श्रम की बहुतायत से मजदूरों की जिन्दगी कैसे प्रभावित हुई ?

उत्तरउन्नीसवीं सदी के मध्य बाजार में श्रम की बहुतायत से मजदूरों की जिन्दगी भी प्रभावित हुई जिसके निम्न कारण थे

(1) शहरों से जैसे ही नौकरियों की खबर गाँवों में पहुँची, सैकड़ों की तादाद में लोगों के हुजूम शहरों की तरफ चल पड़े। नौकरी मिलने की सम्भावना यारी-दोस्ती, कुनबे-कुटुम्ब के जरिए जान-पहचान पर निर्भर करती थी।

(2) किसी कारखाने में किसी का रिश्तेदार या दोस्त लगा हुआ होता था तो नौकरी मिलने की सम्भावना ज्यादा रहती थी। सबके पास ऐसे सामाजिक सम्पर्क नहीं होते थे।

(3) रोजगार चाहने वाले बहुत सारे लोगों को हफ्तों का इन्तजार करना पड़ता था। वे पुलों के नीचे या रैन-बसेरों में रात काटते थे। कुछ बेरोजगार शहर में बने निजी रैन-बसेरों में रहते थे। बहुत सारे निर्धन कानून विभाग द्वारा चलाए जाने वाले अस्थायी बसेरों में रुकते थे।

(4) बहुत सारे उद्योगों में मौसमी काम की वजह से कामगारों को बीच-बीच में बहुत समय तक खाली बैठना पड़ता था। काम का सीजन गुजर जाने के बाद गरीब दोबारा सड़क पर आ जाते थे। कुछ लोग जाड़ों के बाद गाँवों में चले जाते थे जहाँ इस समय कार्य निकलने लगता था। लेकिन ज्यादातर शहर में ही छोटा-मोटा कार्य ढूँढ़ने की कोशिश करते थे जो उन्नीसवीं सदी के मध्य तक भी सरल कार्य नहीं था।

प्रश्न 3. प्रथम युद्ध के दौरान मजदूरों की आय के वास्तविक मूल्य में भारी कमी आई। स्पष्ट कीजिए।

उत्तर--उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में वेतन में कुछ सुधार आया। लेकिन इससे मजदूरों की हालत में बेहतरी का पता नहीं चलता। औसत आँकड़ों से अलग-अलग व्यवसायों के बीच आने वाले फर्क और साल-दर-साल होने वाले उतार-चढ़ाव छिपे रह जाते थे। उदाहरण के तौर पर जब प्रथम युद्ध के दौरान कीमतें तेजी से बढ़ी तो मजदूरों की आय के वास्तविक मूल्य में भारी कमी आ गई। अब उन्हें वेतन तो पहले जितना मिलता था लेकिन उससे वे पहले जितनी वस्तुएँ नहीं खरीद सकते थे। मजदूरों की आमदनी भी सिर्फ वेतन दर पर ही निर्भर नहीं होती थी। रोजगार की अवधि भी बहुत महत्वपूर्ण थी, मजदूरों की औसत दैनिक आय इससे तय होती थी कि उन्होंने कितने दिन कार्य किया है।

प्रश्न 4. 1840 के दशक के बाद रोजगार की स्थिति पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।

उत्तर- 1840 के दशक के बाद शहरों में निर्माण की गतिविधियाँ तेजी से बढ़ीं। लोगों के लिए नए रोजगार अवसर पैदा हुए। सड़कों को चौड़ा किया गया, नए रेलवे स्टेशन बने, रेलवे लाइनों का विस्तार किया गया, सुरंगें बनाई गईं, निकासी और सीवर लाइन बिछाई गई, नदियों के तटबन्ध बनाए गए। परिवहन उद्योग में कार्य करने वालों की संख्या 1840 के दशक में दोगुना और अगले 30 सालों में एक बार फिर दोगुना हो गई।

प्रश्न 5. सेंसस रिपोर्ट ऑफ सेन्ट्रल प्रोविंसेज में बुनकरों के कोष्टि समुदाय के बारे में क्या कहा गया था?

उत्तर- रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के अन्य भागों में महीन कपड़ा बनाने वाले बुनकरों की तरह कोष्टियों का भी बुरा समय चल रहा है। वे मैनचेस्टर से इतनी भारी तादाद में आने वाली आकर्षक वस्तुओं का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं। हाल के वर्षों में वे बड़ी संख्या में यहाँ से जाने लगे हैं। वे मुख्य रूप से बिहार का रुख कर रहे हैं जहाँ दिहाड़ी मजदूर के तौर पर उन्हें रोजी-रोटी मिल जाती है।

प्रश्न 6. भारत में मैनचेस्टर के आने से बुनकरों को किन समस्याओं का सामना करना पड़ा? उत्तर-भारत में मैनचेस्टर के आने से बुनकरों को निम्न समस्याओं का सामना करना पड़ा

(1) जब इंग्लैण्ड में कपास उद्योग विकसित हुआ तो वहाँ के उद्योगपति दूसरे देशों से आने वाले आयात को लेकर परेशान दिखाई देने लगे। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि वह आयातित कपड़े पर आयात शुल्क वसूल करें जिससे मैनचेस्टर में बने कपड़े बाहरी प्रतिस्पर्धा के बिना इंग्लैण्ड में आराम से बिक सके। दूसरी तरफ उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी पर दबाव डाला कि वह ब्रिटिश कपड़ों को भारतीय बाजारों में भी बेचे।

(2) इस प्रकार भारत में कपड़ा बुनकरों के सामने एक-साथ दो समस्याएँ थीं। उनका निर्यात बाजार ढह रह था और स्थानीय बाजार सिकुड़ने लगा था।

(3) स्थानीय बाजार में मैनचेस्टर के आयातित मालों की भरमार थी। कम लागत पर मशीनों से बनने वाले आयातित कपास उत्पाद इतने सस्ते थे कि बुनकर उनका मुकाबला नहीं कर सकते थे। 1850 के दशक तक देश के ज्यादातर बुनकर इलाकों में गिरावट और बेकारी के ही किस्सों की भरमार थी।

(4) 1860 के दशक में बुनकरों के सामने नयी समस्या खड़ी हो गई। उन्हें अच्छी कपास नहीं मिल पा रही थी। जब अमेरिकी गृह युद्ध शुरू हुआ और अमेरिका से कपास की आमद बन्द हो गई तो ब्रिटेन भारत से कच्चा माल मँगाने लगा। भारत से कच्चे कपास के निर्यात में इस वृद्धि से उसकी कीमत आसमान छूने लगी। भारतीय बुनकरों को कच्चे माल के लाल पड़ गए।

प्रश्न 7. प्रथम विश्व युद्ध तक कौन-कौन सी यूरोपीय प्रबन्धकीय एजेन्सियाँ भारतीय उद्योगों के विशाल क्षेत्र का नियन्त्रण करती थीं?

उत्तर--पहले विश्व युद्ध तक यूरोपीय प्रबन्धकीय एजेन्सियाँ भारतीय उद्योगों के विशाल क्षेत्र का नियन्त्रण करती थीं। इनमें बर्ड हीगलर्स एण्ड कम्पनी, एंड्रयू यूल, और जार्डीन स्किनर एण्ड कम्पनी सबसे बड़ी कम्पनियाँ थीं। ये एजेन्सियाँ पूँजी जुटाती थीं, संयुक्त उद्यम कम्पनियाँ लगाती थीं और उनका प्रबन्धन संभालती थीं। ज्यादातर मामलों में भारतीय वित्तपोषक (फाइनेंसर) पूँजी उपलब्ध कराते थे। जबकि निवेश

और व्यवसाय से सम्बन्धित फैसले यूरोपीय एजेन्सियाँ लेती थीं। यूरोपीय व्यापारियों-उद्योगपतियों के अपने वाणिज्यिक परिसंघ थे जिनमें भारतीय व्यवसायियों को शामिल नहीं किया जाता था।

प्रश्न 8. भारतीय सौदागरों के निर्यात व्यापार का नेटवर्क किस प्रकार का था ?

उत्तर – निर्यात व्यापार के इस नेटवर्क में बहुत सारे भारतीय व्यापारी और बैंकर सक्रिय थे। वे उत्पादन में पैसा लगाते थे, चीजों को लेकर जाते थे और निर्यातकों को पहुँचाते थे। माल भेजने वाले आपूर्ति सौदागरों के जरिये बंदरगाह नगर देश के भीतर इलाकों से जुड़े हुए थे। ये सौदागर बुनकरों को पेशगी देते थे, बुनकरों से तैयार कपड़ा खरीदते थे और उसे बन्दरगाहों तक पहुँचाते थे। बन्दरगाह बड़े जहाज मालिक और निर्यात व्यापारियों के दलाल कीमत पर मोल-भाव करते थे और आपूर्ति सौदागरों से माल खरीद लेते थे। 1750 के दशक तक भारतीय सौदागरों के नियन्त्रण वाला यह नेटवर्क टूटने लगा था।

प्रश्न 9. भारत में सूती कपड़ा मिल व जूट मिल के प्रारम्भ पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।

उत्तर-भारत में पहली कपड़ा मिल 1854 में बम्बई में लगी और दो साल बाद उसमें उत्पादन होने लगा। 1862 तक वहाँ ऐसी चार मिलें काम कर रहीं थीं। उनमें 94,000 तकलियाँ और 2,150 करघे थे। उसी समय बंगाल में जूट मिलें खुलने लगीं। वहाँ देश की पहली जूट मिल 1855 में और दूसरी 7 साल बाद 1862 में चालू हुई। उत्तरी भारत में एल्गिन मिल 1860 के दशक में कानपुर में खुली। इसके साल भर बाद अहमदाबाद की पहली कपड़ा मिल भी चालू हो गई। 1874 में मद्रास में भी पहली कताई और बुनाई मिल खुल गई।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. औद्योगीकरण की प्रक्रिया कितनी तेज थी? इस पर एक लेख लिखिए।

उत्तर- औद्योगीकरण की प्रक्रिया

(1) सूती उद्योग और कपास उद्योग ब्रिटेन के सबसे फलते-फूलते उद्योग थे। तेजी से बढ़ता हुआ कपास उद्योग 1840 के दशक तक औद्योगीकरण के पहले चरण में सबसे बड़ा उद्योग बन चुका था। इसके बाद लोहा और स्टील उद्योग आगे निकल गए। 1840 के दशक से इंग्लैण्ड में और 1860 के दशक से उसके उपनिवेशों में रेलवे का विस्तार होने लगा था। फलस्वरूप लोहे और स्टील की जरूरत तेजी से बढ़ी। 1873 तक ब्रिटेन के लोहा और स्टील निर्यात के मूल्य से दोगुनी थी।

(2) नए उद्योग परम्परागत उद्योगों को इतनी आसानी से हाशिए पर नहीं ढकेल सकते थे। उन्नीसवीं सदी के आखिर में भी तकनीकी रूप से विकसित औद्योगिक क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिकों की संख्या कुल श्रमिकों में 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी। कपड़ा उद्योग एक गतिशील उद्योग था लेकिन उसके उत्पादन का बड़ा भाग कारखानों में नहीं अपितु घरेलू इकाइयों में होता था।

(3) यद्यपि परम्परागत उद्योगों में परिवर्तन की गति भाप से चलने वाले सूती और धातु उद्योगों से तय नहीं हो रही थी किन्तु ये परपम्परागत उद्योग पूरी तरह ठहराव की अवस्था में भी नहीं थे। खाद्य प्रसंस्करण, निर्माण, पॉटरी, काँच के काम, चर्मशोधन, फर्नीचर और औजारों के उत्पादन जैसे बहुत सारे गैर-मशीन क्षेत्रों में जो तरक्की हो रही थी। वह मुख्य रूप से साधारण और छोटे-छोटे आविष्कारों का ही परिणाम थी।

(4) प्रौद्योगिकीय परिवर्तनों की गति धीमी थी। औद्योगिक दृश्य पर ये परिवर्तन नाटकीय तेजी से नहीं फैले। नयी तकनीक मँहगी थी। सौदागर व व्यापारी उनके प्रयोग के सवाल पर फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाते थे। मशीनें अक्सर खराब हो जाती थीं और उनकी मरम्मत पर काफी खर्चा आता था। वे उतनी अच्छी भी नहीं थीं जितना उनके आविष्कारकों और निर्माताओं का दावा था।

अब इतिहासकार इस बात को मानने लगे हैं कि उन्नीसवीं सदी के मध्य का औसत मजदूर मशीनों पर काम करने वाला नहीं बल्कि परम्परागत कारीगर और मजदूर होता था।

प्रश्न 2. उन्नीसवीं शताब्दी के भारत में प्रारम्भिक उद्यमियों पर टिप्पणी कीजिए।

उत्तर-

(1) देश के विभिन्न भागों में उद्यमी तरह-तरह के उद्योग लगा रहे थे। बहुत सारे व्यावसायिक समहों का इतिहास चीन के साथ व्यापार के जमाने से चला आ रहा था। अठारहवीं सदी के आखिर से ही अंगेज भारतीय अफीम का चीन को निर्यात करने लगे थे। उसके बदले में वे चीन से चाय खरीदते थे जो इंग्लैण्ड जाती थी। इस व्यापार में बहुत सारे भारतीय कारोबारी सहायक की हैसियत में पहुँच गए थे। वे पैसा उपलब्ध कराते थे, आपूर्ति सुनिश्चित करते थे और माल को जहाजों में लाद कर रवाना करते थे।

(2) व्यापार से पैसा कमाने के बाद उनमें से कुछ व्यवसायी भारत में औद्योगिक उद्यम स्थापित करना चाहते थे। बंगाल में द्वारकानाथ टैगोर ने चीन के साथ व्यापार में खूब पैसा कमाया और वे उद्योगों में निवेश करने लगे। 1830-1840 के दशकों में उन्होंने 6 संयुक्त उद्यम कम्पनियाँ लगा दी थीं। 1840 के दशक में आए व्यापक व्यावसायिक संकटों में औरों के साथ-साथ टैगोर के उद्यम भी बैठ गए। लेकिन उन्नीसवीं सदी में चीन के साथ व्यापार करने वाले बहुत सारे व्यवसायी सफल उद्योगपति भी साबित हुए।

(3) बम्बई में डिनशाँ पेटिट और आगे चलकर देश में विशाल औद्योगिक साम्राज्य स्थापित करने वाले जमशेदजी नुसरवानजी टाटा जैसे पारसियों ने आंशिक रूप से चीन को निर्यात करके और आंशिक रूप से इंग्लैण्ड को कच्ची कपास निर्यात करके पैसा कमा लिया था।

(4) 1917 में कलकत्ता में देश की पहली जूट मिल लगाने वाले मारवाड़ी व्यवसायी सेठ हुकुमचन्द ने भी चीन के साथ व्यापार किया था। यही काम प्रसिद्ध उद्योगपति जी. डी. बिड़ला के पिता और दादा ने किया।

प्रश्न 3. बीसवीं शताब्दी में लघु उद्योगों के विकास पर एक टिप्पणी कीजिए।

उत्तर-(1) प्रथम युद्ध के बाद फैक्ट्री उद्योगों में लगातार इजाफा हुआ लेकिन अर्थव्यवस्था में विशाल उद्योगों का हिस्सा छोटा था। उनमें से ज्यादातर 1911 में 67 प्रतिशत बंगाल और बम्बई में स्थित थे। बाकी पूरे देश में छोटे स्तर के उत्पादन का ही दबदबा रहा।

(2) पंजीकृत फैक्ट्रियों में कुल औद्योगिक श्रम शक्ति का बहुत छोटा हिस्सा ही काम करता था। यह संख्या 1911 में 5 प्रतिशत और 1931 में 10 प्रतिशत थी। बाकी मजदूर गली-मोहल्लों में स्थित छोटी-छोटी वर्कशॉप और घरेलू इकाइयों में काम करते थे।

(3) कुछ मामलों में तो बीसवीं सदी के दौरान हाथ से होने वाले उत्पादन में दरअसल इजाफा हुआ था। यह बात हथकरघा क्षेत्र के बारे में भी सही है। सस्ते मशीन-निर्मित धागे ने उन्नीसवीं सदी में कताई उद्योग को खत्म कर दिया था लेकिन तमाम समस्याओं के बावजूद बुनकर अपना व्यवसाय किसी तरह चलाते रहें। बीसवीं सदी में हथकरघों पर बने कपड़े के उत्पादन में लगातार सुधार हुआ। 1900 से 1940 के बीच यह तीन गुना हो चुका था।

(4) बीसवीं सदी के दूसरे दशक में ऐसे बुनकरों को देखते हैं जो फ्लाई शटल वाले करघों का प्रयोग करते थे। इससे कामगारों की उत्पादन क्षमता बढ़ी, उत्पादन तेज हुआ और श्रम की माँग में कमी आई।

(5) 1941 तक भारत में 35 प्रतिशत से ज्यादा हथकरघों में फ्लाई शटल लगे होते थे। त्रावणकोर, मद्रास, मैसूर, कोचीन, बंगाल आदि क्षेत्रों में तो ऐसे 70-80 प्रतिशत तक थे। इसके अलावा भी कई छोटे-छोटे सुधार किए गए जिनसे बुनकरों को अपनी उत्पादकता बढ़ाने और मिलों से मुकाबला करने में मदद मिली।

प्रश्न 4. “औद्योगीकरण की शुरूआत से ही विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाजार को फैलाने में और एक नयी उपभोक्ता संस्कृति रचने में अपनी भूमिका निभाई।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-– विज्ञापनों ने विभिन्न उत्पादों के बाजार को फैलाने में निम्न भूमिका निभाई

(1) जब मैनचेस्टर के उद्योगपतियों ने भारत में कपड़ा बेचना शुरू किया तो वे कपड़े के बण्डलों पर लेबल लगाते थे। लेबल का फायदा यह होता था कि खरीददारों को कम्पनी का नाम व उतपादन की जगह पता चल जाती थी। लेबल ही चीजों की गुणवत्ता का प्रतीक भी था। जब किसी लेबल पर मोटे अक्षरों में ‘मेड इन मेनचेस्टर’ लिखा दिखाई देता तो खरीददारों को कपड़ा खरीदने में किसी तरह भ्रम नहीं रहता था।

(2) लेबलों पर सिर्फ शब्द और अक्षर ही नहीं होते थे। उन पर तस्वीर भी बनी होती थी जो अक्सर बहुत सुन्दर होती थी। अगर हम पुराने लेबलों को देखें तो उनके निर्माताओं की सोच, उनके हिसाब-किताब और लोगों को आकर्षित करने के उनके तरीकों का अन्दाज लगा सकते हैं।

(3) लेबलों पर भारतीय देवी-देवताओं की तस्वीरें प्रायः होती थीं। देवी-देवताओं की तस्वीर के बहाने निर्माता ये दिखाने की कोशिश करते थे कि ईश्वर भी चाहता है कि लोग उस वस्तु को खरीदें। कृष्ण या सरस्वती की तस्वीरों का फायदा ये होता था कि विदेशों में बनी वस्तु भी भारतीयों को जानी-पहचानी सी लगती थी।

(4) उन्नीसवीं सदी के आखिर में निर्माता अपने उत्पादों को बेचने के लिए कैलेण्डर छपवाने लगे थे। अखबारों और पत्रिकाओं को तो पढ़े-लिखे लोग ही समझ सकते थे लेकिन कैलेण्डर उनको भी समझ में आ जाते थे, जो पढ़ नहीं सकते थे। चाय की दुकानों, दफ्तरों व मध्यवर्गीय घरों में ये कैलेण्डर लटके रहते थे। जो इन कैलेण्डरों को लगाते थे वे विज्ञापन को भी हर रोज, पूरे साल देखते थे। इन कैलेण्डरों में भी नए उत्पादों को बेचने के लिए देवताओं की तस्वीर होती थी।

(5) देवताओं की तस्वीरों की तरह महत्वपूर्ण व्यक्तियों, सम्राटों व नवाबों की तस्वीरे भी विज्ञापनों व कैलेण्डरों में खूब इस्तेमाल होती थी। इनका सन्देश अक्सर यह होता था। अगर आप इस शाही व्यक्ति का सम्मान करते हैं तो इस उत्पाद का भी सम्मान कीजिए; अगर इस उत्पाद को राजा प्रयोग करते हैं या उसे शाही निर्देश से बनाया गया है तो उसकी गुणवत्ता पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता।

जब भारतीय निर्माताओं ने विज्ञापन बनाए तो उनमें राष्ट्रवादी सन्देश साफ झलकता था। इसका यह अर्थ था कि अगर आप राष्ट्र की परवाह करते हैं तो उन वस्तुओं को खरीदिए जिन्हें भारतीयों ने बनाया है। ये विज्ञापन स्वदेशी के राष्ट्रवादी सन्देश के वाहक बन गए थे।

NCERT Class 10th Social science solution chapter 4 : औद्योगीकरण का युग

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