MP Board Class 9th History Chapter 5 : आधुनिक विश्व में चरवाहे

इतिहास – भारत और समकालीन विश्व-I (History: India and The Contemporary World – I )

खण्ड II : जीविका, अर्थव्यवस्था एवं समाज

Chapter 5 : आधुनिक विश्व में चरवाहे [Pastoralists in the Modern World]

महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • चरवाहों की किसी टोली के पास भेड़-बकरियों का रेवड़ या झुण्ड होता है तो किसी के पास ऊँट या अन्य मवेशी रहते हैं।
  • घुमंतू ऐसे लोग होते हैं जो किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते बल्कि रोजी-रोटी की जुगाड़ में यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं।
  • पहाड़ियों में रहने वाले गुज्जर शुद्ध चरवाहा कबीले के लोग हैं।
  • जम्मू और कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय के लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े रेवड़ रखते हैं। धंगर महाराष्ट्र का एक जाना-माना चरवाहा समुदाय है।
  • चरवाहों में एक जाना-पहचाना नाम बंजारों का भी है। बंजारे उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाकों में रहते थे।
  • राजस्थान के रेगिस्तानों में राइका समुदाय रहता था।
  • औपनिवेशिक शासन के दौरान चरवाहों की जिन्दगी में गहरे बदलाव आए। वन अधिनियमों ने चरवाहों की जिन्दगी बदल डाली।
  • 1871 में औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम पारित किया।
  • देश के ज्यादातर चरवाही इलाकों में उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही चरवाही टैक्स लागू कर दिया गया था।
  • अफ्रीका में दुनिया की आधी से ज्यादा चरवाहा आबादी रहती है। इनमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान और तुर्काना जैसे जाने-माने समुदाय भी शामिल हैं।
  • उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की साम्राज्यवादी शक्तियों ने अफ्रीका में कब्जे के लिए मार-काट करके अपने-अपने कब्जे में ले लिया।
  • 1885 में ब्रिटिश, कीनिया और जर्मन, तांगान्यिका के बीच एक अन्तर्राष्ट्रीय सीमा खींचकर मासाईलैंड के दो बराबर-बराबर टुकड़े कर दिए गए।
  • बहुत सारे चरागाहों को शिकारगाह बना दिया गया । कीनिया में मासाई मारा व साम्बूस नेशनल पार्क और तंजानिया में सेरेन्गेटी पार्क जैसे शिकारगाह अस्तित्व में आए थे।
  • सेरेन्गेटी नेशनल पार्क का 14,760 वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा क्षेत्रफल मासाइयों के चरागाहों पर कब्जा करके बनाया गया था।
  • औपनिवेशिक शासन की स्थापना के बाद तो मासाइयों को एक निश्चित इलाके में कैद कर दिया गया था।
  • मासाई समाज दो सामाजिक श्रेणियों में बँटा हुआ था-वरिष्ठ जन (ऐल्डर्स) और योद्धा (वॉरियर्स) ।

पाठान्त अभ्यास

प्रश्न 1. स्पष्ट कीजिए कि घुमंतू समुदायों को बार-बार एक जगह से दूसरी जगह क्यों जाना पड़ता है ? इस निरन्तर आवागमन से पर्यावरण को क्या लाभ हैं ?

उत्तर– घुमंतू समुदायों में इस प्रकार के लोग होते हैं जो किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते बल्कि रोजी-रोटी के जुगाड़ में यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं। चरवाहों की किसी टोली के पास भेड़-बकरियों का रेवड़ या झुण्ड होता है तो किसी के पास ऊँट या अन्य मवेशी होते हैं।

घुमंतू समुदायों के स्थान परिवर्तन के कारण – ये लोग सर्दी-गर्मी के हिसाब से अलग-अलग चरागाहों में जाते हैं। जाड़ों में जब ऊँची पहाड़ियाँ बर्फ से ढक जातीं तो वे शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आकर डेरा डाल लेते। जाड़ों में निचले इलाके में मिलने वाली सूखी झाड़ियाँ ही उनके जानवरों के लिए चारा बन जातीं। अप्रैल के अन्त तक वे उत्तर दिशा में जाने लगते-गर्मियों के चरागाहों के लिए।

सर्दी-गर्मी के हिसाब से हर साल चरागाह बदलते रहने का यह चलन हिमालय के पर्वतों में रहने वाले बहुत सारे चरवाहा समुदायों में दिखायी देता था । यहाँ के भोटिया, शेरपा और किन्नौरी समुदाय के लोग भी इसी तरह के चरवाहे थे। ये सभी समुदाय मौसमी बदलावों के हिसाब से खुद को ढालते थे और अलग-अलग इलाकों में पड़ने वाले चरागाहों का बेहतरीन इस्तेमाल करते थे। जब एक चरागाह की हरियाली खत्म हो जाती थी या इस्तेमाल के काबिल नहीं रह जाती थी तो वे किसी और चरागाह की तरफ चले जाते थे। इस आवाजाही से चरागाह जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल से भी बच जाते थे और उनमें दोबारा हरियाली व जिन्दगी भी लौट आती थी । चरवाहे सिर्फ पहाड़ों पर ही नहीं रहते थे । वे पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में भी बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे।

घुमंतू समुदायों के निरन्तर आवागमन से पर्यावरण को लाभ-चरवाहा समुदायों की जिन्दगी कई बातों के बारे में काफी सोच-विचार करके आगे बढ़ती थी। उन्हें इस बात का हमेशा ख्याल रखना पड़ता था कि उनके रेवड़ एक इलाके में कितने दिन तक रह सकते हैं और उन्हें कहाँ पानी और चरागाह मिल सकते हैं। उन्हें न केवल एक इलाके से दूसरे इलाके में जाने का सही समय चुनना पड़ता था बल्कि यह भी देखना पड़ता था कि उन्हें किन इलाकों से गुजरने की छूट मिल पाएगी और किन इलाकों से नहीं। सफर के दौरान उन्हें रास्ते में पड़ने वाले गाँवों के किसानों से भी अच्छे सम्बन्ध बनाने पड़ते थे ताकि उनके जानवर किसानों के खेतों में घास चर सकें और उनको उपजाऊ बनाते चलें। अर्थात् निरन्तर स्थान परिवर्तन के कारण किसी एक स्थान की वनस्पति का अत्यधिक दोहन नहीं होता व भूमि की उर्वरता बनी रहती है जिससे चरागाहों की गुणवत्ता बनी रहती व इनके निरन्तर आवागमन से पर्यावरण को लाभ होता।

प्रश्न 2. इस बारे में चर्चा कीजिए कि औपनिवेशिक सरकार ने निम्नलिखित कानून क्यों बनाए ? यह भी बताइए कि इन कानूनों से चरवाहों के जीवन पर क्या असर पड़ा।

(1) परती भूमि नियमावली,

(2) वन अधिनियम,

(3) अपराधी जनजाति अधिनियम,

(4) चराई कर ।

उत्तर- (1) परती भूमि नियमावली लागू करने के कारण – औपनिवेशिक सरकार चरागाहों को खेती की जमीन में तब्दील करना चाहती थी। अंग्रेज अफसरों को बिना खेती की जमीन का कोई मतलब समझ में नहीं आता था, उससे न तो लगान मिलता था और न ही उपज । अंग्रेज ऐसी जमीन को ‘बेकार’ मानते थे। उसे खेती के लायक बनाना जरूरी था। इसी बात को ध्यान में रखकर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से देश के विभिन्न भागों में परती भूमि विकास के लिए नियम बनाए जाने लगे।

परती भूमि नियमावली का असर– इस नियमावली के जरिए सरकार गैर-खेतिहर जमीन को अपने कब्जे में लेकर कुछ खास लोगों को सौंपने लगी। इन लोगों को कई तरह की रियायतें दी गईं और इस जमीन को खेती लायक बनाने और उस पर खेती करने के लिए जमकर बढ़ावा दिया गया। इस तरह कब्जे में ली गई ज्यादातर जमीन चरागाहों की थी जिनका चरवाहे नियमित रूप से प्रयोग किया करते थे। इस तरह खेती के फैलाव से चरागाह सिमटने लगे और चरवाहों के लिए समस्याएँ उत्पन्न होने लगीं ।

(2) वन अधिनियम लागू करने के कारण – औपनिवेशिक अधिकारियों को लगता था कि पशुओं के चरने से छोटे जंगली पौधे और पेड़ों की नई कोपलें नष्ट हो जाती हैं। उनकी राय में, चरवाहों के रेवड़ छोटे पौधों को कुचल देते हैं और कोपलों को खा जाते हैं जिससे नए पेड़ों की बढ़त रुक जाती है। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते देश के विभिन्न प्रान्तों में वन अधिनियम भी पारित किए जाने लगे थे। इन कानूनों की आड़ में सरकार ने ऐसे कई जंगलों को ‘आरक्षित’ वन घोषित कर दिया। इन जंगलों में चरवाहों के घुसने पर पाबन्दी लगा दी गई।

वन अधिनियमों का असर– वन अधिनियमों ने चरवाहों की जिन्दगी बदल डाली। अब उन्हें उन जंगलों में जाने से रोक दिया गया जो पहले मवेशियों के लिए बहुमूल्य चारे का स्रोत थे। जंगलों में दाखिल होने के लिए उन्हें परमिट लेना पड़ता था। अब चरवाहे किसी जंगल में ज्यादा समय तक नहीं रह सकते थे। भले ही वहाँ चारा कितना ही हो, घास कितनी भी क्यों न हो। अगर वह समय-सीमा का उल्लंघन करते थे तो उन पर जुर्माना लगा दिया जाता था ।

(3) अपराधी जनजाति अधिनियम लागू करने के कारण – औपनिवेशिक सरकार चरवाहों को शक की नजर से देखती थी। घुमंतुओं को अपराधी माना जाता था। 1871 में औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपराधी जनजाति अधिनियम पारित किया गया। इस कानून के तहत् दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के सारे बहु समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में रख दिया गया।

अपराधी जनजाति अधिनियम का असर-इस अधिनियम के लागू होते ही ऐसे सभी समुदायों को कुछ खास अधिसूचित गाँव व बस्तियों में बस जाने का आदेश सुना दिया गया। उनकी बिना परमिट आवाजाही पर रोक लगा दी गई। ग्राम्य पुलिस उन पर नजर रखने लगी। इस कारण चरवाहे स्थानीय चरागाहों पर निर्भर हो गए जिसके कारण उनके पशुओं की संख्या में तेजी से गिरावट आई।

(4) चराई कर लागू करने के कारण – औपनिवेशिक सरकार ने अपनी आय बढ़ाने के लिए लगान वसूलने का हरसम्भव प्रयास किया। उन्होंने जमीन, नहरों के पानी, नमक, खरीद-फरोख्त की चीजों और यहाँ तक कि मवेशियों पर भी टैक्स वसूलने का ऐलान कर दिया। चरवाहों से चरागाहों में चरने वाले एक-एक जानवर पर टैक्स वसूल किया जाने लगा। देश के ज्यादातर चरवाही इलाकों में उन्नीसवीं सदी के मध्य ही चरवाही टैक्स लागू कर दिया गया था। 1850 से 1880 के दशकों के बीच टैक्स वसूली का काम बाकायदा बोली लगाकर ठेकेदारों को सौंप दिया जाता था। 1880 के दशक तक आते-आते सरकार ने अपने कारिंदों के माध्यम से सीधे चरवाहों से ही कर वसूलना शुरू कर दिया। प्रत्येक चरवाहे को एक ‘पास’ जारी कर दिया गया। किसी भी चरागाह में दाखिल होने के लिए चरवाहों को पास दिखाकर पहले कर (टैक्स) अदा करना पड़ता था। चरवाहे के साथ कितने जानवर हैं और उसने कितना टैक्स चुकाया है, इस बात को उसके पास में दर्ज कर दिया जाता था ।

चराई कर का असर- चराई कर की ठेकेदारी पाने के लिए ठेकेदार सरकार को जो पैसा देते थे उसे वसूल करने और साल भर में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बनाने के लिए वे जितना चाहे उतना कर वसूल सकते थे। जिससे प्रति मवेशी टैक्स की दर तेजी से बढ़ती चली गई और टैक्स वसूली की व्यवस्था दिनों-दिन मजबूत होती गई। इसके परिणामस्वरूप चरवाहों ने पशुओं की संख्या को सीमित कर दिया व अनेक चरवाहों ने अवर्गीकृत चरागाहों की खोज में स्थान परिवर्तन कर लिया।

प्रश्न 3. मासाई समुदाय के चरागाह उससे क्यों छिन गए ? कारण बताएँ ।

उत्तर– मासाई पशुपालक साधारण तौर पर पूर्वी अफ्रीका के निवासी हैं। मासाई समुदाय के चरागाह निम्न कारणों से छिन गए-

(1) उन्नीसवीं सदी के आखिर में यूरोप की साम्राज्यवादी ताकतों ने अफ्रीका में कब्जे के लिए मार-काट शुरू कर दी और बहुत सारे इलाकों को छोटे-छोटे उपनिवेशों में तब्दील करके अपने-अपने कब्जे में ले लिया।

(2) 1885 में ब्रिटिश, कीनिया और जर्मन तांगान्यिका के बीच एक अन्तर्राष्ट्रीय सीमा खींचकर मासाईलैण्ड के दो बराबर-बराबर टुकड़े कर दिए गए। बाद के वर्षों में सरकार ने गोरों को बसाने के लिए बेहतरीन चरागाहों को अपने कब्जे में ले लिया।

(3) मसाइयों को दक्षिण कीनिया और उत्तरी तंजानिया के छोटे से इलाके में समेट दिया गया। औपनिवेशिक शासन से पहले मासाइयों के पास जितनी जमीन थी उसका लगभग 60 प्रतिशत भाग उनसे छीन लिया गया।

(4) उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार पूर्वी अफ्रीका में भी स्थानीय किसानों को अपनी खेती के क्षेत्रफल को ज्यादा से ज्यादा फैलाने के लिए प्रोत्साहित करने लगे। जैसे-जैसे खेती का प्रसार हुआ वैसे-वैसे चरागाह खेतों में तब्दील होने लगे ।

(5) बहुत सारे चरागाहों को शिकारगाह बना दिया गया । कीनिया में मासाई मारा व साम्बूख नेशनल पार्क और तंजानिया में सेरेन्गेटी पार्क जैसे शिकारगाह इसी तरह अस्तित्व में आए थे। सेरेन्गेटी नेशनल पार्क का 14,760 वर्ग किलोमीटर से भी ज्यादा क्षेत्रफल मासाइयों के चरागाहों पर कब्जा करके बनाया गया था।

(6) अच्छे चरागाहों और जल संसाधनों के हाथ से निकल जाने की वजह से उस छोटे से इलाके पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया जिससे मासाइयों को धकेल दिया गया था। एक छोटे-से इलाके में लगातार चरायी का नतीजा यह हुआ कि चरागाहों का स्तर गिरने लगा । चारे की हमेशा कमी रहने लगी। मवेशियों का पेट भरना एक समस्या बन गयी।

प्रश्न 4. आधुनिक विश्व ने भारत और पूर्वी अफ्रीकी चरवाहा समुदायों के जीवन में जिन परिवर्तनों को जन्म दिया उनमें कई समानताएँ थीं। ऐसे दो परिवर्तनों के बारे में लिखिए जो भारतीय चरवाहों और मासाई गड़रियों दोनों के बीच समान रूप से मौजूद थे।

उत्तर(1) खेती के क्षेत्रफल का विस्तार – औपनिवेशिक सरकार भारत और पूर्वी अफ्रीका में चरागाहों को खेती की जमीन में तब्दील कर देना चाहती थी। खेती का क्षेत्रफल बढ़ने से सरकार की आय में और बढ़ोत्तरी हो सकती थी ।

भारतीय चरवाहे व मसाई गड़रियों को जीवन-यापन के लिए कृषि भूमि के विस्तार के कारण शुष्क और कम हरे-भरे क्षेत्रों की ओर स्थानांतरित होना पड़ा। अच्छे चरागाहों और जल संसाधनों के हाथ से निकल जाने की वजह से उस छोटे से इलाके पर दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया । एक छोटे-से इलाके में लगातार चरायी का नतीजा यह हुआ कि चरागाहों का स्तर गिरने लगा। यह परिवर्तन भारतीय चरवाहों और मासाई गड़रियों दोनों के बीच समान रूप से मौजूद थे।

(2) नए कानून और बंदिशें-हिन्दुस्तान की तरह अफ्रीकी चरवाहों की जिन्दगी में भी औपनिवेशिक और उत्तर- औपनिवेशिक काल में गहरे बदलाव आए। नए कानूनों और बंदिशों ने न केवल उनकी जमीन छीन ली बल्कि उनकी आवाजाही पर भी बहुत सारी पाबंदियाँ थोप दीं। इन कानूनों के कारण दोनों ही स्थानों पर सूखे के दिनों में उनकी जिन्दगी गहरे तौर पर बदल गई और उनके सामाजिक सम्बन्ध भी एक नई शक्ल में ढल गए।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहु-विकल्पीय प्रश्न

(C) अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न

1. धंगर चरवाहा समुदाय है-

(i) मध्य प्रदेश से,

(ii) छत्तीसगढ़ से,

(iii) महाराष्ट्र से,

(iv) आन्ध्र प्रदेश से ।

2. राइका समुदाय के लोग रहते हैं-

(i) महाराष्ट्र में,

(ii) राजस्थान में,

(iii) मध्य प्रदेश में,

(iv) गुजरात में।

3. औपनिवेशिक काल में मसाई लोगों से कितने प्रतिशत चराई क्षेत्र छिन गया ?

(i) 70 प्रतिशत,

(ii) 60 प्रतिशत,

(iii) 50 प्रतिशत,

(iv) 40 प्रतिशत ।

4. औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम कब पारित किया ?

(i) 1871 में,

(ii) 1885 में,

(iii) 1905 में,

(iv) 1920 में।

5. वह स्थान बताइए जहाँ दुनिया की आधी से ज्यादा चरवाहा आबादी रहती है-

(i) भारत,

(ii) पाकिस्तान,

(iii) तंजानिया,

(iv) अफ्रीका।

6. मासाई समाज कितनी सामाजिक श्रेणियों में बँटा हुआ था ?

(i) पाँच,

(ii) चार,

(iii) तीन,

(iv) दो।

उत्तर- 1. (ii), 2. (ii), 3. (ii), 4. (i), 5. (iv), 6. (iv) ।

• रिक्त स्थान पूर्ति

1. महाराष्ट्र की मुख्य गड़रिया जाति ……………………. है।

2. उच्च पर्वतों पर स्थित विशाल चरागाहों को ………………………. कहा जाता है।

3. औपनिवेशिक अधिकारियों को लगता था पशुओं के चरने से छोटे जंगली पौधे और पेड़ों की …………………………….. नष्ट हो जाती है।

4. भेड़-बकरियों के समूह को …………………………… कहा जाता है।

5. चरवाहे बदलते वक्त के हिसाब से खुद को ……………………….. हैं।

उत्तर- 1. धनगर, 2. बुग्योल, 3. नई कोपलें, 4. रेवड़, 5. ढालते ।

सत्य/असत्य

1. गुज्जर बकरवाल समुदाय जम्मू और कश्मीर राज्य से है।

2. गद्दी समुदाय हिमाचल प्रदेश से है।

3. खरीफ फसल मई जून में कटने वाली हैं।

4. वन अधिनियमों का चरवाहों की जिन्दगी पर अच्छा प्रभाव पड़ा।

5. उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही चरवाही टैक्स लागू कर दिया गया था।

उत्तर – 1. सत्य, 2. सत्य, 3. असत्य, 4. असत्य, 5. सत्य ।

• सही जोड़ी मिलाइए

उत्तर – 1. (ग), 2. (ङ), 3. (घ), 4. (क), 5. (ख)।

एक शब्द/वाक्य में उत्तर

1. जाड़ों की फसलें जिनकी कटाई मार्च के बाद शुरू होती है को क्या कहा जाता है ?

2. सितम्बर-अक्टूबर में कटने वाली फसलें क्या कहलाती हैं ?

3. चरवाहों में एक जाना-पहचाना नाम क्या है ?

4. कारिंदों के माध्यम से सीधे चरवाहों से कर वसूलना किस दशक में शुरू किया ?

5. औपनिवेशिक शासन में मासाइयों से कितनी जमीन छीन ली गई ?

उत्तर- 1. रबी, 2. खरीफ, 3. बंजारे, 4. 1880, 5.60 प्रतिशत ।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. घुमंतू कौन होते हैं ?

उत्तर – घुमंतू ऐसे लोग होते हैं जो किसी एक जगह टिक कर नहीं रहते बल्कि रोजी-रोटी की जुगाड़ में यहाँ से वहाँ घूमते रहते हैं।

प्रश्न 2. भाबर क्या है ?

उत्तर- गढ़वाल और कुमाऊँ के इलाके में पहाड़ियों के निचले हिस्से के आस-पास पाए जाने वाला शुष्क या सूखे जंगल का इलाका भाबर कहा जाता है।

प्रश्न 3. बुग्याल किसे कहते हैं ?

उत्तर– ऊँचे पहाड़ों में स्थित घास के मैदान बुग्याल कहलाते हैं।

प्रश्न 4. राइका समुदाय किस राज्य में रहता है व ये लोग क्या पालते हैं ?

उत्तर-राइका समुदाय राजस्थान में रहता था। राइकाओं का एक तबका ऊँट पालता था जबकि कुछ भेड़-बकरियाँ पालते थे ।

प्रश्न 5. रबी व खरीफ की फसलें कब काटी जाती हैं ?

उत्तर रबी– जाड़ों की फसलें जिनकी कटाई मार्च के बाद शुरू होती है ।

खरीफ – सितम्बर-अक्टूबर में कटने वाली फसलें ।

प्रश्न 6. औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम कब पारित किया ? इसके अन्तर्गत : किन समुदायों को अपराधी सूची में रखा गया ।

उत्तर-1871 में औपनिवेशिक सरकार ने अपराधी जनजाति अधिनियम पारित किया। इस कानून के तहत् दस्तकारों, व्यापारियों और चरवाहों के बहुत सारे समुदायों को अपराधी समुदायों की सूची में रख दिया गया।

प्रश्न 7. बंजारे किन-किन इलाकों में रहते थे ?

उत्तर – चरवाहों में एक जाना-पहचाना नाम बंजारों का भी है। बंजारे उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कई इलाकों में रहते थे।

प्रश्न 8. अफ्रीका के प्रमुख चरवाहों समूह के नाम बताइए।

उत्तर – बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान तथा तुर्काना।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. जम्मू-कश्मीर के गुज्जर बकरवाल के जीवन पर टिप्पणी कीजिए।

अथवा

गुज्जर बकरवाल कौन थे ? वे अपना जीवन-यापन कैसे करते थे ?

उत्तर – जम्मू और कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय के लोग भेड़-बकरियों के बड़े-बड़े रेवड़ रखते हैं। ये लोग सर्दी-गर्मी के हिसाब से अलग-अलग चरागाहों में जाते हैं। जाड़ों में जब ऊँची पहाड़ियाँ बर्फ से ढक जातीं तो वे शिवालिक की निचली पहाड़ियों में आकर डेरा डाल लेते। जाड़ों में निचले इलाके में मिलने वाली सूखी झाड़ियाँ ही उनके जानवरों के लिए चारा बन जाती हैं। गर्मियों के चरागाहों के लिए वे अप्रैल के अन्त तक उत्तर दिशा में जाने लगते। इस सफर के दौरान कई परिवार काफिला बनाकर साथ-साथ चलते थे । वे पीर पंजाल के दर्रों को पार करते हुए कश्मीर की घाटी में पहुँच जाते। जैसे ही गर्मियाँ शुरू होतीं, जमी हुई बर्फ की मोटी चादर पिघलने लगती और चारों तरफ हरियाली छा जाती । जिससे यहाँ उगने वाली घास से मवेशियों का पेट भर जाता। सितम्बर के अन्त में बकरवाल समूह एक बार फिर अपना बोरिया-बिस्तर समेटने लगते । फिर वे वापस अपने जाड़ों वाले ठिकाने की तरफ नीचे की ओर चले जाते। जब पहाड़ों की चोटियों पर बर्फ जमने लगती तो वे निचली पहाड़ियों की शरण में चले जाते ।

प्रश्न 2. राजस्थान के राइका समुदाय के जीवन का वर्णन कीजिए।

अथवा

राइका समुदाय पर टिप्पणी कीजिए।

उत्तर-राजस्थान के रेगिस्तानों में राइका समुदाय रहता था। इस क्षेत्र में वर्षा का कोई भरोसा नहीं था। होती भी थी तो बहुत कम। इस कारण कृषि उपज हर साल घटती-बढ़ती रहती। बहुत सारे इलाकों में तो दूर-दूर तक कोई फसल होती ही नहीं थी । इस कारण राइका समूह खेती के साथ-साथ चरवाही का भी कार्य करते थे। मानसून के समय में तो बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर के राइका अपने गाँवों में ही रहते थे क्योंकि इस दौरान उन्हें वहाँ चारा मिल जाता था। जबकि अक्टूबर आते-आते ये चरागाह सूखने लगते थे। परिणामस्वरूप ये लोग नए चरागाहों की तलाश में दूसरे इलाकों की तरफ निकल जाते थे व अगले मानसून में ही वापस जा थे। राइकाओं का एक समूह ऊँट पालता था जबकि कुछ भेड़-बकरियाँ पालते थे।

प्रश्न 3. बंजारे कौन थे ? बंजारों के जीवन के बारे में संक्षेप में बताइए। 1-

उत्तर – चरवाहों में एक जाना-पहचाना नाम बंजारों का भी है। ये उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में रहते थे। बंजारे लोग बहुत दूर-दूर तक चले जाते थे और रास्ते में अनाज और चारे के बदले गाँव वालों को खेत जोतने वाले जानवर और दूसरा सामान बेचते थे। वे जहाँ पर भी जाते अपने जानवरों के लिए अच्छे चरागाहों की खोज में रहते।

प्रश्न 4. कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश के चरवाहों के बारे में टिप्पणी कीजिए।

अथवा

कुरूमा और कुरूबा लोगों की आवाजाही किस प्रकार उनके पशुओं की आवश्यकता से प्रेरित थी ? स्पष्ट कीजिए ।

उत्तर-कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश सूखे मध्य पठार घास और पत्थरों से अटे पड़े थे। इनमें मवेशियों, भेड़-बकरियों और गड़रियों का ही बसेरा रहता था । यहाँ गोहला समुदाय के लोग गाय-भैंस पालते थे जबकि कुरूमा और कुरूबा समुदाय के लोग भेड़-बकरियाँ पालते थे और हाथ के बुने कम्बल बेचते थे। ये लोग जंगलों और छोटे-छोटे खेतों के आसपास रहते थे। वे अपने जानवरों की देखभाल के साथ-साथ कई दूसरे काम-धन्धे भी करते थे। ये लोग बरसात और सूखे मौसम के हिसाब से अपनी जगह बदलते थे। सूखे महीनों में वे तटीय इलाकों की तरफ चले जाते थे जबकि बरसात शुरू होने पर वापस चल देते थे। वर्षा के दिनों में तटीय इलाकों – में जिस तरह के गीले दलदली हालात पैदा हो जाते थे वे सिर्फ भैंसों को ही रास आ सकते थे। ऐसे समय में बाकी जानवरों को सूखे पठारी क्षेत्रों में ले जाना जरूरी था।

प्रश्न 5. कोंकणी भूमि पर धंगरों के आगमन से स्थानीय किसान एवं धंगर कैसे लाभान्वित होते थे ? संक्षेप में बताइए ।

उत्तर– कोंकणी किसान धंगरों का दिल खोलकर स्वागत करते थे। जिस समय इन लोगों का समूह कोंकण पहुँचता था उसी समय कोंकण के किसानों को खरीफ की फसल काटकर अपने खेतों को रबी की फसल के लिए दोबारा उपजाऊ बनाना होता था। धंगरों के मवेशी खरीफ की कटाई के बाद खेतों में बची रह गई ठूंठों को खाते थे और उनके गोबर से खेतों को खाद मिल जाती थी। कोंकणी किसान धंगरों को चावल भी देते थे जिन्हें वे वापस अपने पठारी इलाके में ले जाते थे क्योंकि वहाँ इस तरह के अनाज बहुत कम होते थे। मानसून शुरू होते ही धंगर कोंकण और तटीय इलाके छोड़कर सूखे पठारों की तरफ लौट जाते थे क्योंकि भेड़ गीले मानसूनी हालात को बर्दाश्त नहीं कर पातीं।

प्रश्न 6. सूखा चरवाहों की जिन्दगी पर किस प्रकार प्रभाव डालता है ?

उत्तर – सूखा विश्वभर के चरवाहों की जिन्दगी पर प्रभाव डालता है। जिस वर्ष बारिश नहीं होती और चरागाह सूख जाते हैं, अगर उस वर्ष मवेशियों को किसी हरे-भरे इलाके में न ले जाया जाए तो उनके सामने भुखमरी का संकट पैदा हो जाता है। इसीलिए परम्परागत तौर पर चरवाहे घुमंतू स्वभाव के लोग होते हैं, वे यहाँ से वहाँ जाते ही रहते हैं। इसी घुमंतूपन की वजह से वे बुरे वक्त का सामना कर पाते हैं और संकट से बच निकलते हैं। जैसे-जैसे चरने की जगह सिकुड़ती गई, सूखे के दुष्परिणाम भयानक रूप लेते चले गए। बार-बार आने वाले बुरे सालों की वजह से चरवाहों के जानवरों की संख्या में लगातार गिरावट आती गई।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. विभिन्न बदलावों ने चरवाहों की जिन्दगी को किस तरह प्रभावित किया ?

अथवा

चरागाह की कमी ने किस प्रकार चरावाहों के जीवन को प्रभावित किया ?

उत्तर-

(1) औपनिवेशिक बदलावों की वजह से चरागाहों की गम्भीर कमी उत्पन्न हो गई। जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा चरागाहों को सरकारी नियन्त्रण में लेकर उन्हें खेतों में परिवर्तित किया जाने लगा, वैसे-वैसे चरागाहों के लिए उपलब्ध क्षेत्र सिकुड़ने लगा ।

(2) इसी तरह, जंगलों के आरक्षण का नतीजा यह हुआ कि गड़रिये और पशुपालक अब अपने मवेशियों को जंगलों में पहले जैसी आजादी से नहीं चरा सकते थे।

(3) जब चरागाह खेतों में बदलने लगे शेष चरागाहों में चरने वाले जानवरों की तादाद बढ़ने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि चरागाह सदा जानवरों से भरे रहने लगे।

(4) पहले तो घुमंतू चरवाहे अपने पशुओं को कुछ दिन तक ही एक क्षेत्र में चराते थे और उसके बाद किसी और क्षेत्र में चले जाते थे। इस अदला-बदली की वजह से पिछले चरागाह भी फिर से हरे-भरे हो जाते थे ।

(5) चरवाहों की आवाजाही पर लगी बंदिशों और चरागाहों के अन्धाधुन्ध प्रयोग से चरागाहों का स्तर गिरने लगा। जानवरों के लिए चारा कम पड़ने लगा।

उपर्युक्त कारणों के परिणामस्वरूप जानवरों की सेहत और संख्या में भी गिरावट होने लगी। चारे की कमी और जब-तब पड़ने वाले अकाल की वजह से कमजोर और भूखे पशु बड़ी तादाद में मरने लगे।

प्रश्न 2. औपनिवेशिक काल में चरवाहों ने बदलावों का सामना कैसे किया ?

उत्तर- चरवाहों ने बदलावों का सामना निम्न प्रकार किया-

(1) कुछ चरवाहों ने तो अपने जानवरों की संख्या कम कर दी। अब बहुत सारे जानवरों को चराने के लिए पहले की तरह बड़े-बड़े और बहुत सारे मैदान नहीं बचे थे।

(2) जब पुराने चरागाहों का प्रयोग करना कठिन हो गया तो कुछ चरवाहों ने नए-नए चरागाह ढूँढ लिए ।

(3) समय गुजरने के साथ कुछ धनी चरवाहे जमीन खरीद कर एक जगह बसकर रहने लगे। उनमें से कुछ नियमित रूप से खेती करने लगे जबकि कुछ व्यापार करने लगे।

(4) जिन चरवाहों के पास ज्यादा पैसा नहीं था वे सूदखोरों से ब्याज पर कर्ज लेकर दिन काटने लगे ।

(5) कुछ चरवाहे मजदूर बनकर रह गए। वे खेतों या छोटे-मोटे कस्बों में मजदूरी करके जीवन-यापन करने लगे ।

(6) 1947 के भारत विभाजन के बाद राइका समूह न तो सिन्ध में दाखिल हो सकते थे और न सिन्धु नदी के किनारे अपने जानवरों को चरा सकते थे। जाहिर है अब उन्हें जानवरों को चराने के लिए नई जगह ढूँढनी थी। अब वे हरियाणा के खेतों में जाने लगे हैं जहाँ कटाई के बाद खाली पड़े खेतों में अपने मवेशियों को चरा सकते हैं।

प्रश्न 3. “नई सरहदों ने चरवाहों की जिन्दगी रातों-रात बदल डाली।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए। उत्तर – उन्नीसवीं सदी में चरवाहे चरागाहों की खोज में बहुत दूर-दूर तक जाते थे। जब एक जगह के चरागाह सूख जाते थे तो वे अपने रेवड़ लेकर किसी और स्थान पर चले जाते थे। लेकिन उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में ब्रिटिश सरकार ने उनके आवागमन पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाये। ये प्रतिबन्ध इस प्रकार थे-

(1) चरवाहों को विशेष आरक्षित इलाकों की सीमाओं में कैद कर दिया गया। अब ये समुदाय इन आरक्षित इलाकों की सीमाओं के पार आ-जा नहीं सकते थे।

(2) ये लोग विशेष परमिट लिए बिना अपने जानवरों को लेकर बाहर नहीं जा सकते थे । किन्तु परमिट प्राप्त करना भी कोई सरल कार्य नहीं था। इसके लिए उन्हें तरह-तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता था और तंग किया जाता था। अगर कोई नियमों का पालन नहीं करता था तो उसे कड़ा दण्ड दिया जाता था।

(3) चरवाहों को गोरों के इलाके में पड़ने वाले बाजारों में दाखिल होने से भी रोक दिया गया। बहुत सारे क्षेत्रों में तो उनकी व्यापारिक गतिविधियों पर नियन्त्रण था।

(4) बाहर से आए औपनिवेशिक अधिकारी उन्हें खतरनाक और बर्बर स्वभाव वाला मानते थे। उनकी नजर में ये ऐसे लोग थे जिनके साथ कम से कम सम्बन्ध रखना ही उचित था।

(5) किन्तु दूसरी ओर इन स्थानीय लोगों से किसी भी तरह के सम्बन्ध न रखना भी मुमकिन नहीं था । क्योंकि खानों से माल निकालने, सड़कें बनाने और शहर बसाने के लिए अधिकारियों को इन लोगों को श्रम का ही भरोसा था।

उपरोक्त बिन्दुओं से स्पष्ट है कि नई सरहदों ने चरवाहों की जिन्दगी रातों-रात बदल डाली। नई पाबंदियों और बाधाओं की आड़ में उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा और वे छोटे-से इलाके में अपने आपको कैद-सा महसूस करने लगे। इससे उनकी चरवाही और व्यापारिक, दोनों तरह की गतिविधियों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 4. मासाई समाज में दो स्तरों पर बदलाव आए। वह बदलाव कौन से थे ? स्पष्ट कीजिए ।

अथवा

ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त किये गये मासाइयों के मुखिया कैसे लाभान्वित हुए ?

अथवा

पूर्व औपनिवेशिक काल में मासाई समाज किन सामाजिक श्रेणियों में बँटा हुआ था ?

उत्तर-उपनिवेश बनने से पहले मासाई समाज दो सामाजिक श्रेणियों में बँटा हुआ था – वरिष्ठ जन (ऐल्डर्स) और योद्धा (वॉरियर्स))। वरिष्ठजन शासन चलाते थे। समुदाय से जुड़े मामलों पर विचार-विमर्श करने और अहम निर्णय लेने के लिए वे समय-समय पर सभा करते थे। योद्धाओं में ज्यादातर नौजवान होते थे जिन्हें प्रमुख रूप से युद्ध लड़ने और कबीले की सुरक्षा करने के लिए तैयार किया जाता था। वे समुदाय की सुरक्षा करते थे और दूसरे कबीलों के जानवर छीनकर लाते थे। जहाँ जानवर ही सम्पत्ति हो वहाँ हमला करके दूसरों के मवेशी छीन लेना एक महत्वपूर्ण कार्य होता था। युवाओं को योद्धा वर्ग का भाग तभी माना जाता था जब वे दूसरे समूह के मवेशियों को छीनकर और युद्ध में बहादुरी का प्रदर्शन करके अपनी मर्दानगी साबित कर देते थे। फिर भी वे वरिष्ठ जनों के मार्गदर्शन में ही कार्य करते थे।

मासाइयों के मामलों की देखभाल करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कई ऐसे निर्णय लिए जिनसे आने वाले वर्षों में बहुत गहरे प्रभाव पड़े। उन्होंने कई मासाई उपसमूहों के मुखिया तय कर दिए और अपने-अपने कबीले के सारे मामलों का उत्तरदायित्व उन्हें ही सौंप दिया। इसके बाद उन्होंने हमलों और लड़ाइयों पर रोक लगा दी। इस प्रकार वरिष्ठ जनों और योद्धाओं, दोनों की परम्परागत सत्ता बहुत कमजोर हो गई।

समय बीतने के साथ-साथ अंग्रेजी सरकार द्वारा नियुक्त किए गए मुखिया माल एकत्र करने लगे। उनके पास नियमित आय थी जिससे वे मवेशी, साजो-सामान, और जमीन खरीद सकते थे। वे अपने निर्धन पड़ोसियों को लगान चुकाने के लिए कर्ज पर रुपया देते थे। उनमें से ज्यादातर बाद में शहरों में जाकर बस गए और व्यापार करने लगे। उनके परिवार के बाकी सदस्य गाँव में ही रहकर मवेशियों की देखभाल करते थे। इस प्रकार उन्हें चरवाही और गैर- चरवाही दोनों तरह की आय प्राप्त होती थी।

दूसरी ओर जो चरवाहे सिर्फ अपने मवेशियों पर आश्रित थे उनकी स्थिति अलग थी। इन लोगों के पास बुरे वक्त का सामना करने के लिए अक्सर साधन नहीं होते थे । युद्ध और अकाल के दौरान उनका सब कुछ खत्म हो जाता था। तब उन्हें कार्य की खोज में आस-पास के शहरों में जाना पड़ता था। कोई कच्चा कोयला जलाने का कार्य करने लगता था तो कोई सड़क या भवन निर्माण का कार्य ।

इस प्रकार मासाई समाज में दो स्तरों पर बदलाव आए। पहला, वरिष्ठ जनों और योद्धाओं के बीच आयु पर आधारित परम्परागत अन्तर पूरी तरह खत्म भले न हुआ हो पर बुरी तरह अस्त-व्यस्त जरूर हो गया। दूसरा, धनी और निर्धन चरवाहों के मध्य भेदभाव पैदा हो गया।

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