M.P. Board solutions for Class 10 Hindi Kshitij क्षितिज भाग 2 – काव्य खंड
क्षितिज काव्य खंड Chapter 2 – राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
पाठ 2 – राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद
कठिन शब्दार्थ
नाथ = स्वामी। संभुधनु= शिव जी का धनुष । भंजनिहारा= भंग करने वाला, तोड़ने वाला। रिसाइ = क्रोध करना। सहसबाहु = एक राजा जिसके हजारों भुजाएँ थीं। रिपु = शत्रु। बिलगाउ = अलग होना, पृथक् । अवमाने = अवमानना या अपमान करना। लरिकाईं = बचपन में। परसु = फरसा, कुल्हाड़ी की तरह का एक शस्त्र (यही परशुराम का प्रमुख शस्त्र था)। कोही = क्रोधी। विस्वविदित = संसारभर में प्रसिद्ध। महिदेव = ब्राह्मण। बिलोक =देखकर। बधौं = वध कर देता, मार देता। अर्भक = बच्चा। महाभट = महान योद्धा। पहारू = पहाड़ को। मही = धरती। कुठारु = कुल्हाड़ा। कुम्हड़बतिया = बहुत कमजोर, निर्बल व्यक्ति, काशीफल या कुम्हड़े का बहुत छोटा फल। तरजनी = अँगूठे के पास की उँगली। कुलिस = कठोर। सरोष = क्रोध सहित। कौसिक = विश्वामित्र। भानुबंस = सूर्यवंश, राम का वंश सूर्यवंश था। निरंकुस = जिस पर किसी का दबाव न हो, मनमानी करने वाला। घालकु = नाश करने वाला। कालकवलु = जिसे काल ने अपना ग्रास बना लिया हो, मृत। अबुधु = नासमझ। खोरि = दोष। हटकह = मना करने पर। अछोभा = शांत, धीर, जो घबराया न हो। कटुबादी = कड़वा बोलने वाला । बधजोगू = मारने योग्य। अकरुन= जिसमें करुणा न हो। गुरूद्रोही = गुरू से द्रोह करने वाला। गाधिसूनु = गाधि के पुत्र यानी विश्वामित्र। अयमय = लोहे का बना हुआ। खाँड़ = गुण। नेवारे = मना करना। ऊखमय = गन्ने से बना हुआ। कृसानु अग्नि। भृगुबरकोपु = भृगु के वंश में जन्मे परशुराम का क्रोध। रघुकुल भानु = रघुकुल के सूर्य, श्रीराम।
पद्यांशों की व्याख्या
(1)
नाथ संभुधनु भंजनिहारा।
होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयेसु काह कहिअ किन मोही।
सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई।
अरिकरनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा।
सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा।
न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने।
बोले परसुधरहि अवमाने॥
बहु धनुहीं तोरी लरिकाईं।
कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।
एहि धनु पर ममता केहि हेतू।
सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतु॥
रे नृपबालक कालबस बोलत तोहिन सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार।।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षिजित’ भाग-2 के पाठ ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से लिया गया है। यह संवाद ‘रामचरितमानस’ से संकलित है। इसके रचनाकार ‘गोस्वामी तुलसीदास’ हैं।
प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में गोस्वामी जी ने सीता स्वयंवर के अवसर पर धनुष भंग हो जाने पर परशुराम-राम तथा लक्ष्मण के संवाद का वर्णन किया है।
व्याख्या-शिव-धनुष के टूटने की आवाज सुनकर मुनि परशुराम राजा जनक के दरबार में आकर धनुष तोड़ने वाले के विषय में पूछते हैं तब राम बड़े सरल स्वभाव में बतलाते हैं कि हे नाथ ! शिव जी के धनुष को तोड़ने वाला तुम्हारा ही कोई एक दास (सेवक) होगा। आप मुझे आज्ञा दीजिए तथा अपने आने का प्रयोजन बतलाइए। राम की इतनी-सी बात सुनकर मुनि का क्रोध और भी बढ़ जाता है तथा वे कहते हैं कि सेवक तो वही होता है जो सेवा का कार्य करता है परन्तु शत्रुता का कार्य करने वाले के साथ तो लड़ाई ही करनी चाहिए। अतः हे राम ! सुनो जिसने भी इस शिव-धनुष को तोड़ा है वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह अतिशीघ्र इस समाज को छोड़कर अलग हो’ जाये नहीं तो सभी राजा मारे जायेंगे। मुनि परशुराम के इन वचनों को सुनकर लक्ष्मण मुस्कराने लगते हैं और फरसे को धारण करने वाले परशुराम जी का अपमान करने के उद्देश्य से कहते हैं कि हे गोसाईं! हमने बचपन में बहुत-सी धनुहियाँ तोड़ी थीं। परन्तु आपने इस प्रकार कभी क्रोध नहीं किया था। इस धनुष पर आपकी इतनी ममता किस कारण से है ? यह सुनकर भृगुकुल की ध्वजा स्वरूप परशुराम जी ने क्रोधित होकर कहा-हे राजा के पुत्र ! तुम काल के वश में हो, इसलिए संभलकर होश में नहीं बोल रहे हो। सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध यह शिव जी का धनुष क्या छोटी-सी धनुही के समान है ?
विशेष-(1) राम-लक्ष्मण-परशुराम के उद्दीप्त संवाद का वर्णन है।
(2) ‘सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ में उपमा अलंकार है।
(3) भृगुकुलकेतू’ में रूपक अलंकार है तथा सम्पूर्ण पद में अनुप्रास की छटा व्याप्त है।
(4) सम्पूर्ण पद में शान्त, ओज तथा व्यंग्य का भाव है।
(5) चौपाई एवं दोहा छन्द का प्रयोग है।
(6) अवधी भाषा का प्रयोग है।
(7) शैली वर्णनात्मक एवं संवादात्मक है।
(2)
लखन कहा हँसि हमरे जाना।
सुनहु देव सब धनुष समाना।
का छति लाभु जून धन तोरें।
देखा राम नयन के भोरें।
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू।
मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ परसु की ओरा।
रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।
बालकु बोलि बधौं नहिं तोही।
केवल मुनि जड़ जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही।
बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही।
बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहुभुज छेदनिहारा।
परसु बिलोकु महीपकुमारा॥
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
सन्दर्भ–– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षिजित’ भाग-2 के पाठ ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से लिया गया है। यह संवाद ‘रामचरितमानस’ से संकलित है। इसके रचनाकार ‘गोस्वामी तुलसीदास’ हैं।
प्रसंग-प्रस्तुत छन्द में परशुराम तथा लक्ष्मण के संवाद का वर्णन है।
व्याख्या– क्रोधी मुनि परशुराम की बात सुनकर लक्ष्मण हँसकर कहते हैं कि हे देव ! सुनिए, हमारे ज्ञान में तो सभी में धनुष एक जैसे ही हैं। पुराने धनुष को तोड़ने में क्या लाभ-हानि है ? श्रीराम तो इसे नया समझ रहे थे। दूसरी बात यह है कि यह धनुष छूते ही टूट गया था। अत: इसमें रघुनाथ जी का कोई दोष नहीं है। हे मुनि! आप बिना कारण के ही क्रोध क्यों कर रहे हैं ? इतना सुनकर परशुराम जी अपने फरसे की ओर देखकर बोले-हे दुष्ट ! तू मेरे स्वभाव को नहीं जानता। मैं तुझे बच्चा समझकर नहीं मारना चाहता हूँ। हे मूर्ख ? तू क्या मुझे बिल्कुल मुनि समझता है ? मैं बाल ब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी स्वभाव का हूँ। मैं क्षत्रिय कुल का शत्रु हूँ तथा सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध हूँ। अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया था और अनेक बार इसे ब्राह्मणों को दे दिया है। हे राजा के पुत्र ! सहस्त्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे की ओर देख। इसलिए हे राजपुत्र! तू अपने माता-पिता को सोचने के लिए विवश मत कर। मेरा फरसा बहुत ही भयानक है। यह गर्भस्थ शिशुओं को भी नष्ट करने वाला है।
विशेष-(1) यहाँ परशुराम तथा लक्ष्मण के संवाद का यथार्थ चित्रण है।
(2) इस पद में परशुराम की वीरता एवं क्रूरता की अभिव्यक्ति हुई है।
(3) सम्पूर्ण पद में अनुप्रास अलंकार की छटा विद्यमान है।
(4) वीर तथा रौद्र रस की प्रधानता है।
(5) ओज गुण की प्रधानता है।
(6) चौपाई तथा दोहा छन्दों का प्रयोग है
(7) अवधी भाषा का प्रयोग है।
(3)
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी।
अहो मुनीसु महाभट मानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु।
चहत उड़ावन फूंकि पहारू॥
इहा कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं।
जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना॥
मैं कछु कहा सहित अभिमाना।
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी।
जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई
हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।
बधे पापु अपकीरति हारें।
मारतहू या परिअ तुम्हारें।
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥
जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गम्भीर ॥
सन्दर्भ–– प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षिजित’ भाग-2 के पाठ ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से लिया गया है। यह संवाद ‘रामचरितमानस’ से संकलित है। इसके रचनाकार ‘गोस्वामी तुलसीदास’ हैं।
प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में लक्ष्मण तथा परशुराम के संवाद का यथार्थ चित्रण किया गया है।
व्याख्या-क्रोधी मुनि परशुराम की बात सुनकर लक्ष्मण हँसते हुए कोमल वाणी में बोले-अरे मुनीश्वर! आप तो स्वयं को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं जो बार बार मुझे कुल्हाड़ी (फरसा) दिखा रहे हो। आप तो फूंक से पहाड़ को उड़ाना चाहते हैं। यहाँ कुम्हड़े की बतिया (छोटा कच्चा फल/ काशीफल) के समान कोई भी कमजोर या दुर्बल व्यक्ति नहीं है जो आपकी तर्जनी उँगली को देखकर मुरझा जायेगा। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमानपूर्वक कहा था। भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो आप जो कुछ भी कह रहे हैं उसे अपना क्रोध रोककर सुन रहा हूँ क्योंकि देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गाय इन पर हमारे रघुकुल में वीरता नहीं दिखाई जाती है। इनको मारने से पाप लगता है और इनसे हारने से अपयश प्राप्त होता है। इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। इन धनुष-बाण और कुठार को देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो हे धीर मुनि ! उसे क्षमा कर दीजिए। लक्ष्मण की बात सुनकर भृगुवंशमणि परशुराम जी क्रोध के साथ गम्भीर वाणी में लक्ष्मण से कहने लगे।
विशेष-(1) लक्ष्मण-परशुराम के संवाद को व्यंग्यात्मक रूप में चित्रित किया गया है।
(2) ‘कुलिस सम वचनु तुम्हारा’ में उपमा अलंकार है।
(3) पुनि-पुनि’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
(4) सम्पूर्ण पद में अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
(5) ‘फूंक से पहाड़ उड़ाना, तरजनी दिखाना।’ इन मुहावरों का प्रयोग किया गया है।
(6) वीर तथा रौद्र रस की प्रधानता है।
(7) ओज गुण की प्रधानता है।
(8) दोहा एवं चौपाई छन्द का प्रयोग है।
(4)
कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु।
कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥
भानुबंस राकेस कलंकू।
निपट निरंकुसु, अबुधु असंकू॥
कालकवलु होइहि छन माहीं।
कउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जो चहहु उबारा।
कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा।
तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी।
बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू।
जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा।
गारी देत न पावहु सोभा॥
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षिजित’ भाग-2 के पाठ ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से लिया गया है। यह संवाद ‘रामचरितमानस’ से संकलित है। इसके रचनाकार ‘गोस्वामी तुलसीदास’ हैं।
प्रसंग–प्रस्तुत पद्यांश में परशुराम-विश्वामित्र तथा लक्ष्मण का संवाद वर्णित है।
व्याख्या-क्रोधी मुनि परशुराम, लक्ष्मण के बारे में विश्वामित्र से कहते हैं कि हे विश्वामित्र ! सुनो, यह बालकं बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है। काल के वश में होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्णचंद्र का कलंक है। यह बहुत उद्दण्ड, मूर्ख तथा निडर है। यदि यह नहीं मानेगा तो अभी क्षणभर में काल का ग्रास हो जायेगा। मैं पुकारकर कह रहा हूँ फिर कोई मुझे दोष मत देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसको समझा दो। इतना सुनकर लक्ष्मण ने कहा-हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते और कौन वर्णित कर सकता है? आपने अपने ही मुख से अपने कार्यों का वर्णन अनेक बार कई प्रकार से किया है। यदि इतना कहने पर भी आपको सन्तोष नहीं हुआ है तो पुनः कह लीजिए। आप अपने क्रोध को रोककर दु:ख सहन मत कीजिए। आप वीरता के व्रत को धारण करने वाले हैं। आप तो धैर्यवान तथा शांत स्वभाव के हैं। गाली देना आपको शोभा नहीं देता। शूरवीर तो युद्ध में शूरता या वीरता का कार्य करते हैं। ऐसा कहकर स्वयं को नहीं जताते हैं। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं।
विशेष-(1) परशुराम जी ने विश्वामित्र को ‘कौशिक’ (कुसिक-पुत्र) कहकर पुकारा है।
(2) वीर एवं रौद्र रस की प्रधानता है।
(3) भानुबंस राकेश कलंकू’ में रूपक अलंकार है।
(4) सम्पूर्ण पद में अनुप्रास अलंकार है।
(5) चौपाई एवं दोहा छन्द का प्रयोग है।
(6) ओज गुण की प्रधानता है।
(7) तुकान्त एवं अवधी भाषा का प्रयोग है।
(8) अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी (अपने मुँह मियाँ मिठू बनना) मुहावरे का सटीक प्रयोग है।
(5)
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा।
बार बार मोहि लागि बोलावा।।
सुनत लखन के बचन कठोरा।
परसु सुधारिधरेउ कर घोरा।।
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू।
कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा।
अब यहु मरनिहार भा साँचा।।
कौसिक कहा छमिअ अपराधू।
बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही।
आगे अपराधी गुरुद्रोही॥
उतर देत छोड़उँ बिनु मारे।
केवल कौसिक सील तुम्हारे।
न त येहि काटि कुठार कठोरें।
गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥
गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरि अरइ सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥
सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षिजित’ भाग-2 के पाठ ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से लिया गया है। यह संवाद ‘रामचरितमानस’ से संकलित है। इसके रचनाकार ‘गोस्वामी तुलसीदास’ हैं।
प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में परशुराम के क्रोध तथा विश्वामित्र द्वारा उन्हें समझाए जाने का वर्णन है।
व्याख्या-लक्ष्मण मुनि परशुराम से कहते हैं कि ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो आप काल को हाँक लगाकर मेरे लिए बुला रहे हैं। लक्ष्मण के ऐसे कठोर वचनों को सुनकर परशुराम जी ने अपने फरसे को ठीक-ठाक करके अपने हाथ में पकड़ लिया और कहने लगे कि अब कोई मुझे दोष मत देना। यह कटु वचन बोलने वाला बालक मारे जाने योग्य ही है। इसे बालक समझकर मैंने बहुत बचाया परन्तु सचमुच यह तो मरने ही आ गया है। अतः इसे मरने से कोई बचा नहीं सकता है। विश्वामित्र मुनि कहने लगे बालक का अपराध क्षमा कर दीजिए। साधु लोग बालकों के गुण-दोषों पर विचार नहीं करते हैं। यह सुनकर मुनि परशुराम बोले-तीखी धार के कुठार और मुझ दयारहित तथा क्रोधी के सामने यह गुरुद्रोही उत्तर दे रहा है। इतना होने पर भी मैं इसे मारे
बिना छोड़ रहा हूँ। हे विश्वामित्र! यह सब आपके शील और प्रेम के कारण किया है। ऐसा नहीं होता तो मैं इसे कठोर कुठार से काटकर थोड़े से ही परिश्रम में गुरु के ऋण से मुक्त कर देता। विश्वामित्र जी ने हृदय में हँसकर कहा-मुनि को तो हरा ही हरा सूझ रहा है अर्थात् सर्वत्र अपनी ही विजय दिखलाई दे रही है किन्तु यह लोहे से बनी हुई खाँड़ है, ईख की खाँड़ नहीं जो मुँह में रखते ही पिघल जायेगी। बड़े खेद की बात है कि मुनि परशुराम जी अब भी इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।
विशेष-(1) मुनि परशुराम राम-लक्ष्मण को छोटा व्यक्ति ही समझ रहे हैं। यह बात व्यंग्य है।
(2) ‘अयमय खाँड़ न ऊखमय’ में विशेषोक्ति अलंकार है।
(3) ‘बार-बार’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
(4) ‘कालु हाँक जनु लावा’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
(5) सम्पूर्ण पद में अनुप्रास की छटा है।
(6) ‘हरा ही हरा दिखाई देना’ लोकोक्ति का प्रयोग है।
(7) चौपाई एवं दोहा छन्द का प्रयोग है।
(8) ओज गुण की प्रधानता है।
(6)
कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा।
को नहि जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भये नीकें।
गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा।
दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली।
तुरत देउँ मैं थैली खोली॥
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा।
हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगृबर परसु देखाबहु मोही।
बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।
मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े।
द्विजदेवता घरहि के बाढ़े॥
अनुचित कहि सब लोगु पुकारे।
रघुपति सयनहि लखनु नेवारे॥
लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥
सन्दर्भ-प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘क्षिजित’ भाग-2 के पाठ ‘राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ से लिया गया है। यह संवाद ‘रामचरितमानस’ से संकलित है। इसके रचनाकार ‘गोस्वामी तुलसीदास’ हैं।
प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश में परशुराम-लक्ष्मण के क्रोध का वर्णन है। परशुराम के क्रोध को देखकर सभा में उपस्थित राजा भयभीत हो जाते हैं।
व्याख्या– मुनि परशुराम के वचनों को सुनकर लक्ष्मण कहते हैं कि हे मुनि! आपके शील स्वभाव को कौन नहीं जानता है ? आपका शील तो सम्पूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। आप अपने माता-पिता से तो उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण शेष रहा है, जिसकी सोच ने आपके मन को बहुत व्याकुल कर रखा है। वह मानो हमारे ही माथे काढ़ा था। बहुत अधिक दिन बीत जाने के कारण हमारे ऊपर ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब आप किसी हिसाब करने वाले व्यक्ति को ले आओ तो मैं तुरन्त ही थैली खोलकर दे दूँ। आपका पूरा हिसाब चुका हूँ। लक्ष्मण के इस प्रकार के कठोर और कड़वे वचन सुनकर परशुराम जी ने अपना कुठार सँभाल लिया। सम्पूर्ण सभा हा-हाकार करके पुकार उठी। लक्ष्मण ने कहा-हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा क्या दिखा रहे हैं ? हे राजाओं के शत्रु! मैं तुम्हें ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ। आपको कभी वीर एवं बलवान योद्धा नहीं मिले हैं। इसलिए हे ब्राह्मण देवता! आप घर में ही बड़े हैं बाहर नहीं। यह सुनकर सभा में उपस्थित सभी लोग यह अनुचित है, अनुचित है, इस प्रकार से पुकारने लगे। इसी समय राम ने आँखों के इशारे से लक्ष्मण को रोक दिया। आहुति के समान लक्ष्मण के उत्तर से मुनि परशुराम जी की क्रोध रूपी अग्नि बढ़ती देखकर रघुकुल के सूर्य श्रीराम ने जल के समान शांत करने वाले वचन बोले।
विशेष-(1) लक्ष्मण एवं परशुराम की क्रोधाग्नि का वर्णन है।
(2) ‘सो जनु हमेरहि माथे काढ़ा’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
(3) ‘हाय-हाय’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
(4) रघुकुल भानु’ में रूपक अलंकार है।
(5) सम्पूर्ण पद्य में अनुप्रास की छटा विद्यमान है।
(6) वीर एवं रौद्र रस की प्रधानता है।
(7) अवधी भाषा का प्रयोग है।
(8) चौपाई एवं दोहा छन्द का समन्वय रूप है।
अभ्यास प्रश्न
प्रश्न 1. परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए ?
उत्तर-परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए अनेक तर्क दिए। वे इस प्रकार हैं-
(1) हमने अपने बचपन में ऐसी अनेक धनुहियाँ तोड़ी हैं परन्तु तब आपने कभी ऐसा क्रोध नहीं किया था।
(2) इस धनुष पर आपकी इतनी ममता क्यों है ? हमारे लिए तो सभी धनुष समान हैं। हमें इस पुराने धनुष को तोड़ने का
लाभ-हानि समझ में नहीं आ रहा है।
(3) श्रीराम ने तो इस धनुष को नया समझा था। यह धनुष तो राम के द्वारा छूते ही टूट गया था। इसमें श्रीराम का क्या दोष है ?
प्रश्न 2. परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर-परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताओं में बड़ी भिन्नता देखने को मिलती है। लक्ष्मण महाक्रोधी थे जबकि राम शील स्वभाव के व्यक्ति थे। परशुराम के क्रोध की अग्नि को जलता हुआ देखकर राम ने अपनी शील-विनम्रता का परित्याग नहीं किया था। उन्होंने मुनि परशुराम जी का सम्मान करते हुए स्वयं को उनका सेवक सिद्ध किया था। दूसरी ओर लक्ष्मण उग्र स्वभाव के हैं। वे तो परशुराम जी के क्रोध में अपनी व्यंग्यात्मक शैली द्वारा घी का काम करते हैं।
प्रश्न 3. लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का जो अंश आपको सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में लिखिए।
उत्तर-लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का हमारा प्रिय अंश इस प्रकार है-
लक्ष्मण-(हँसते हुए) हे देव! हमारे लिए तो सभी धनुष एक समान हैं। अतः पुराने धनुष को तोड़ने में क्या लाभ है और क्या हानि, इसको हम नहीं जानते हैं। यह धनुष तो श्रीराम के छूते ही टूट गया था। अतः इसमें उनका क्या दोष है ? अत: आप अकारण ही क्रोध कर रहे हैं।
परशुराम-(अपने फरसे की ओर देखकर) हे मूर्ख! तू मेरे स्वभाव को नहीं जानता है। मैं तुझे बालक समझकर ही नहीं मारना चाहता हूँ। मैं बिल्कुल मुनि स्वभाव का नहीं हूँ। मैं बाल ब्रह्मचारी एवं अति क्रोधी स्वभाव का हूँ। मैं क्षत्रियों के कुल को नष्ट करने वाला हूँ। इस बात को सम्पूर्ण संसार जानता है। अनेक बार मैंने इस धरती को क्षत्रियों से रहित करके ब्राह्मणों को दान स्वरूप दे दिया है। मैंने इस फरसे से सहस्त्रबाहु जैसे राजाओं का भी वध किया है। मेरा फरसा बहुत भयंकर है। यह गर्भ में पल रहे शिशुओं को भी नष्ट करने वाला है।
प्रश्न 4. परशुराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए-
बाल ब्रह्मचारी अति कोही।
बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही।
बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ।।
सहसबाहुभुज छेदनिहारा।
परसु बिलोक महीपकुमारा।
मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर ।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥
उत्तर-परशुराम ने अपने विषय में सभा में कहा कि मैं बाल ब्रह्मचारी एवं अति क्रोधी हूँ। मैं क्षत्रिय-कुल का संहार (विनाश) करने वाला हूँ, इस बात को सम्पूर्ण संसार जानता है। मैंने इस पृथ्वी को अपनी भुजाओं के बल पर ही राजाओं से रहित कर दिया है तथा उसे ब्राह्मणों को दान रूप में दे दिया है। मेरा फरसा सहस्त्रबाहु जैसे राजाओं को भी नष्ट करने वाला है। इसलिए हे राजपुत्र! तुम मेरे फरसे की ओर तो देखो। अर्थात् तुम मेरे फरसे से डरो। हे राजा के पुत्र! तुम जन्म देने वाले माता-पिता को सोच के वश में मत करो। मेरा फरसा इतना भयंकर है कि यह गर्भस्थ शिशुओं को भी नष्ट करने वाला है।
प्रश्न 5 : लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताई?
उत्तर-लक्ष्मण ने वीर योद्धा को निम्नलिखित विशेषताएँ बताई-
(1) वीर योद्धाओं को गाली देना शोभा नहीं देता। वे तो पराक्रम का कार्य करते हैं।
(2) शूरवीर तो वे होते हैं जो युद्धभूमि में वीरता का कार्य करते हैं।
(3) वीर अपनी वीरता का बखान नहीं करते यह तो कायरों का काम होता है।
(4) वीर योद्धा कभी देवता, ब्राह्मण, भक्त और गाय पर वीरता नहीं दिखाते हैं।
प्रश्न 6. साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। इस कथन पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर-साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो वह बेहतर है। यह सत्य है कि व्यक्ति अपने साहस और शक्ति के माध्यम से प्रगति के पथ की ओर बढ़ता है। यदि उसमें विनम्रता का भाव हो तो वह और भी आगे बढ़ जाता है। साहस और बल सर्वत्र कार्य नहीं करते हैं। व्यक्ति को राम के समान विनयशील भी होना चाहिए। राम ने अपनी विनम्रता के बल पर महाक्रोधी परशुराम को भी अपने वश में कर लिया था।
प्रश्न 7. भाव स्पष्ट कीजिए-
(क) बिहसि लखनु बोले मृदु बानी।
अहो मुनीसु महाभट मानी।
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू।
चहत उड़ावन फूंकि पहारू॥
(ख) इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं।
जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।
देखि कुठारु सरासन बाना।
मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥
(ग) गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँन बूझ अबूझ॥
उत्तर-
(क) भाव-प्रस्तुत पंक्तियों का भाव यह है किलक्ष्मण जी ने परशुराम को व्यंग्यात्मक शैली में महान योद्धा बतलाकर कहा है कि आप तो फूंक से पहाड़ को उड़ाना चाहते हैं। अतः आप हमें बार-बार अपने फरसे से भयभीत न करें।
(ख) भाव-लक्ष्मण क्रोधी मुनि परशुराम से स्पष्ट कहते हैं कि आप हमें काशीफल के समान उँगली मात्र दिखाने से मुरझा जाने वाला ना समझें। मैंने तो आपके पास फरसा आदि देखकर आपका सम्मान किया था। अत: आप वीरों के साथ वीरता का व्यवहार करो।
(ग) भाव-मुनि विश्वामित्र, परशुराम के अहंकार को देखकर मन ही मन सोचते हैं कि मुनि को तो मात्र अपनी ही शक्ति दिखलाई दे रही है, दूसरे की नहीं। ये राम-लक्ष्मण नामक दोनों वीर लोहे से बनी खाँड़ के समान हैं, गन्ने से बनी खाँड़ नहीं जो मुँह में रखते ही घुल जाये।
प्रश्न 8. पाठ के आधार पर तुलसी के भाषा-सौंदर्य पर दस पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर-पाठ के आधार पर तुलसी के भाषा-सौंदर्य की दस पंक्तियाँ निम्न प्रकार हैं-
(1) प्रस्तुत पाठ में तुलसीदास ने अवधी भाषा का प्रयोग किया है।
(2) काव्य-पंक्तियाँ चौपाई एवं दोहा छन्द में बद्ध हैं।
(3) वीर तथा रौद्र रस की प्रधानता है।
(4) भाषा ओजगुण से युक्त है।
(5) व्यंग्यात्मक एवं वर्णनात्मक शैली का प्रयोग है।
(6) मुहावरों के प्रयोग से भाषा मुहावरेदार भी है।
(7) सम्पूर्ण पाठ में अनुप्रास अलंकार की प्रधानता है।
(8) ‘रामचरितमानस’ की भाषा में लोकप्रियता है।
(9) अभिधा, लक्षणा, व्यंजना नामक तीनों शक्तियों का प्रयोग है।
(10) पदों में ध्वनि साम्य एवं तुकबन्दी है।
प्रश्न 9. इस पूरे प्रसंग में व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य है। उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-इस पूरे प्रसंग में जगह-जगह व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य भरा हुआ है। जैसे-लक्ष्मण जब स्वयं द्वारा बचपन में बहुत सी धनुहियाँ तोड़ने की बात कहते हैं-
बहु धनुहीं तोरी लरिकाईं।
कबहुँन असि रिस कीन्हि गोसाईं।
लक्ष्मण यह भी कहते हैं कि हमारे लिए तो सभी धनुष समान हैं-
लखन कहा हँसि हमरे जाना।
सुनहु देव सब धनुष समाना॥
लक्ष्मण मुनि परशुराम को व्यंग्य रूप में बहुत बड़ा योद्धा कहते हैं-
बिहसि लखनु बोले मृदु बानी।
अहो मुनीसु महाभट मानी॥
वीर अपने मुँह अपनी बढ़ाई स्वयं नहीं करते हैं-
अपने मुँहु तुम आपनि करनी।
बार अनेक भाँति बहु बरनी॥
इस प्रकार स्पष्ट है कि पूरे प्रसंग में व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य भरा हुआ है।
प्रश्न 10. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार पहचान कर लिखिए-
(क) बालक बोलि बध नाहि तोही।
(ख) कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।
(ग) तुम्ह तो कालु हाँक जन लावा।
बार बार मोहि लागि बोलावा।।
(घ) लखन उतर आहुति सरिस भगबरकोप कसान।
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकलभानु॥
उत्तर
(क) अनुप्रास अलंकार है।
(ख) अनुपास एवं उपमा अलंकार हैं।
(ग) पुनरुक्तिप्रकाश, उत्प्रेक्षा तथा अनुप्रास अलंकार हैं।
(घ) उपमा एवं अनुप्रास अलंकार हैं।
प्रश्न 11.“सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने वाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।” आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभी-कभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।
उत्तर-यह सत्य है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभी-कभी सकारात्मक भी होता है। ‘भय बिनु होय न प्रीति’ चौपाई की पंक्ति भी इसी बात को स्पष्ट करती है। जब सीधी उँगली से घी नहीं निकलता तो उँगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है। श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिए अनुनय-विनय के साथ समुद्र से रास्ता माँगा था परन्तु तीन दिन निकल जाने पर भी समुद्र ने रास्ता नहीं दिया तब राम ने क्रोध में आकर बाण से समुद्र को सुखाना चाहा तो समुद्र स्वत: ही नतमस्तक हो गया। इसके अतिरिक्त क्रोध सर्वत्र फलदाई नहीं होता है। राम ने अपने शीलता के स्वभाव से ही महाक्रोधी मुनि परशुराम को अपने , वश में कर लिया था।
प्रश्न 12. संकलित अंश में राम का व्यवहार विनयपूर्ण और संयत है, लक्ष्मण लगातार व्यंग्य बाणों का उपयोग करते हैं और परशुराम का व्यवहार क्रोध से भरा हुआ है। आप अपने आपको इस परिस्थिति में रखकर लिखें कि आपका व्यवहार कैसा होता।
उत्तर-जब हम इस परिस्थिति में होंगे तब हम राम के समान विनयपूर्ण और संयत व्यवहार का प्रयोग करेंगे क्योंकि
हो विनय सबसे बड़ा शस्त्र होता है।
प्रश्न 13. अपने किसी परिचित या मित्र के स्वभाव की विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर-हमारे मित्र का नाम श्यामबाबू है। वह श्याम (कृष्ण) के समान ही नटखट एवं वाचाल है। वाचाल होते हुए वह सत्यवक्ता एवं कर्त्तव्यपरायण है। उसकी वाणी में कठोरता के साथ-साथ कोमलता भी है। वह बलिष्ठ भी है।
प्रश्न 14. दूसरों की क्षमताओं को कम नहीं समझना चाहिए-इस शीर्षक को ध्यान में रखते हुए एक कहानी लिखिए।
उत्तर- इस शीर्षक पर विद्यार्थी अपने आदरणीय गुरुजनों के सहयोग से कहानी स्वयं लिखें।
प्रश्न 15. उन घटनाओं को याद करके लिखिए जब आपने अन्याय का प्रतिकार किया हो।
उत्तर-विद्यार्थी स्वयं वर्णन करें।
प्रश्न 16. अवधी भाषा आज किन-किन क्षेत्रों में बोली जाती है ?
उत्तर-अवधी भाषा आज अयोध्या, फैजाबाद, बस्ती इत्यादि क्षेत्रों में बोली जाती है।
पाठेत्तर सक्रियता
1 .तुलसी की अन्य रचनाएँ पुस्तकालय से लेकर पढ़ें।
2. दोहा और चौपाई के वाचन का एक पारम्परिक ढंग है। लय सहित इनके वाचन का अभ्यास कीजिए।
3. कभी आपको पारम्परिक रामलीला अथवा रामकथा की नाट्य प्रस्तुति देखने का अवसर मिला होगा उस अनुभव को अपने शब्दों में लिखिए।
4. इस प्रसंग की नाट्य प्रस्तुति करें।
5. कोही, कुलिस, उरिन, नेवारे-इन शब्दों के बारे में शब्दकोश में दी गई विभिन्न जानकारियाँ प्राप्त कीजिए।
उत्तर- पाठेत्तर सक्रियता के प्रश्नों का उत्तर विद्यार्थी पुस्तकालय, स्वयं अथवा आदरणीय गुरुजनों के सहयोग से प्राप्त करें।