Chapter 18 – सत्कर्म एव धर्मः हिन्दी अनुवाद, शब्दार्थ एवं अभ्यास
प्रश्न 1.
एकपदेन उत्तरं लिखत (एक शब्द में उत्तर लिखो-)
(क) विक्रमादित्यः नगरभ्रमणसमये किं दृष्टवान्? (विक्रमादित्य ने नगर भ्रमण के समय क्या देखा?)
उत्तर:
रुग्णम्। (रोगी को)
(ख) विक्रमादित्यः महामन्त्रिणि राज्यभारं समर्प्य कुत्र अगच्छत्? (विक्रमादित्य महामन्त्री पर राज्यभार को समर्पित करके कहाँ गये?)
उत्तर:
वनम्। (वन में)
(ग) महात्मा कस्य समीपे तपस्यारतः आसीत्? (महात्मा किसके पास तपस्यारत थे?)
उत्तर:
विक्रमादित्यस्य। (विक्रमादित्य के)
(घ) महात्मा योगबलेन तत्र कस्य दृश्यं दर्शितवान्? (महात्मा ने योग के बल से वहाँ किसका दृश्य दिखाया?)
उत्तर:
यमलोकस्य। (यमलोक का)
(ङ) कर्मणां लेखनं कस्य पार्वे अस्ति? (कर्मों का लेखा किसके पास है?)
उत्तर:
चित्रगुप्तस्य। (चित्रगुप्त के)
(च) श्रेष्ठाचरणस्य प्रतिज्ञां कृत्वा विक्रमादित्यः कुत्रः आगतवान्? (श्रेष्ठ आचरण की प्रतिज्ञा करके विक्रमादित्य कहाँ आये?)
उत्तर:
उज्जयिनीम्। (उज्जयिनी में)
प्रश्न 2.
एकवाक्येन उत्तरं लिखत(एक वाक्य में उत्तर लिखो-)
(क) महात्मा विक्रमादित्यं किम् उपदिष्टवान्? (महात्मा ने विक्रमादित्य को क्या उपदेश दिया?)
उत्तर:
महात्मा विक्रमादित्यं उपदिष्टवान् यत्-“राजन्! भवान् तु यथानीति राजधर्मस्य पालनं करोतु। धर्मानुकूलं शासनम् अपि धर्म एव भवति” इति। (महात्मा ने विक्रमादित्य को उपदेश दिया कि-“हे राजन्! आप तो नीति के अनुसार राजधर्म का पालन करो। धर्म के अनुसार शासन भी धर्म ही होता है।)
(ख) कर्म-तपस्योः कः भेदः? (कर्म और तपस्या में क्या भेद है?)
उत्तर:
कर्मणः स्थानम् भिन्नम् परं तपस्या स्वर्गप्राप्तेः साधनम्।” इति कर्म-तपस्ययोः भेदः। (“कर्म का स्थान भिन्न है परन्तु तपस्या स्वर्ग प्राप्ति का साधन है।” ऐसा कर्म और तपस्या का भेद है।)
(ग) विक्रमादित्यः अन्ते किं ज्ञातवान्? (विक्रमादित्य ने अन्त में क्या जाना?)
उत्तर:
विक्रमादित्यः अन्ते ज्ञातवान् यद्-‘सदाचारः एव तपस्या, सत्कर्म एव धर्म’ इति। (विक्रमादित्य ने अन्त में यह जाना कि-“सदाचार ही तपस्या है, सत्कर्म ही धर्म है”।)
(घ) विक्रमादित्यः लोके कथं प्रसिद्धः? (विक्रमादित्य संसार में कैसे प्रसिद्ध हैं?)
उत्तर:
विक्रमादित्यः लोके सत्कर्मणा एव प्रसिद्धः। (विक्रमादित्य संसार में सत्कर्म से ही प्रसिद्धः हैं।)
(ङ) विक्रमादित्यस्य ध्येयवाक्यं किम् आसीत्? (विक्रमादित्य का ध्येय वाक्य क्या था?)
उत्तर:
विक्रमादित्यस्य ध्येयवाक्यं ‘सत्कर्म एव धर्मः’ इति आसीत्। (विक्रमादित्य का ध्येय वाक्य ‘सत्कर्म ही धर्म है’ यह था।)
(च) विक्रमादित्यस्य मनसि केन वैराग्यम् उद्भूतम्? (विक्रमादित्य के मन में किससे वैराग्य उत्पन्न हुआ?)
उत्तर:
विक्रमादित्यस्य मनसि रुग्णदर्शनेन वैराग्यम् उद्भूतम्। (विक्रमादित्य के मन में रोगी को देखने से वैराग्य उत्पन्न हुआ।)
(छ) “सत्कर्म एव धर्मः” कथायाः सारः कः? (“सत्कर्म ही धर्म है” कथा का सारांश क्या है?)
उत्तर:
अस्याः कथायाः सारः यत् ‘मनुष्यः उत्तमानि कर्माणि कृत्वा अपि परलोकं साधयितुम् शक्नोति’ इति। (इस कथा का सारांश है कि ‘मनुष्य अच्छे कार्य करके भी परलोक सिद्ध कर सकता है।)
प्रश्न 3.
रिक्तस्थानानि पूरयत(रिक्त स्थान भरो-)
(क) विक्रमादित्यस्य समीपे एकः ……….. तपस्यारतः आसीत्। (महात्मा/दुरात्मा)
(ख) तपस्या ……… साधनम्। (स्वर्गप्राप्ते/राज्यप्राप्तेः)
(ग)यमराजः …………. आदिष्टवान्। (विक्रमादित्यम्/दूतेभ्यः)
(घ) वने सः कठिनां …………. आरब्धवान्। (दिनचर्यां/तपस्याम्)
(ङ) प्रजापालनं धर्म …….. अस्ति। (तपस्वीनाम्/राज्ञाम्)
उत्तर:
(क) महात्मा
(ख) स्वर्गप्राप्तेः
(ग) दूतेभ्यः
(घ) तपस्याम्
(ङ) राज्ञाम्।।
प्रश्न 4.
उचितं मेलयत(उचित को मिलाओ-)
उत्तर:
(क) → (v)
(ख) → (iv)
(ग) → (ii)
(घ) → (iii)
(ङ) → (i)
प्रश्न 5.
नामोल्लेखपूर्वकं समासविग्रहं कुरुत(नाम का उल्लेख करते हुए समास विग्रह करो-)
(क) ध्येयवाक्यम्
(ख) तपस्यारतः
(ग) प्रजापालनम्
(घ) योगबलेन
(ङ) श्रेष्ठाचरणेन।
उत्तर:
प्रश्न 6.
नामोल्लेखपूर्वकं सन्धिविच्छेदं कुरुत(नामे का उल्लेख करते हुए सन्धि विच्छेद करो-)
(क) धर्मानुकूलम्
(ख) नेति
(ग) सदाचारः
(घ) अद्यापि
(ङ) विक्रमादित्यः।
उत्तर:
प्रश्न 7.
रेखाङ्कितशब्दानाम् आधारेण प्रश्ननिर्माणं कुरुत (रेखांकित शब्दों के आधार पर प्रश्न निर्माण करो-)
(क) विक्रमः अवदत्। (विक्रम बोला।)
उत्तर:
कः अवदत्? (कौन बोला?)
(ख) तपस्या तु महात्मनां कर्म इति। (तपस्या तो महात्माओं का काम है।)
उत्तर:
तपस्या तु केषाम् कर्म इति? (तपस्या तो किनका काम है?
(ग) तत्रैव यमलोकस्य दृश्यं दर्शितवान्। (वहीं यमलोक का दृश्य दिखाया?)
उत्तर:
कुत्र यमलोकस्य दृश्यं दर्शितवान्? (कहाँ यमलोक का दृश्य दिखाया?)
(घ) यमराजः दूतान् पृच्छति? (यमराज दूतों से पूछते हैं।)
उत्तर:
यमराजः कान् पृच्छति? (यमराज ने किनसे पूछा?)
(ङ) राज्ञः धर्म प्रजापालनम्। (राजा का धर्म प्रजा का पालन है।)
उत्तर:
कस्य धर्मः प्रजापालनम्? (किसका धर्म प्रजा का पालन है?)
सत्कर्म एव धर्मः हिन्दी अनुवाद
एकदा विक्रमादित्यः नगरभ्रमणसमये एकम् मरणासन्नं रुग्णं दृष्टवान्। तस्य दर्शनेन मनसि उद्भूतम्। अतः मायामोहमयं संसारं ज्ञात्वा सः महामन्त्रिणि राज्यभारं समर्प्य वनम् अगच्छत्।
अनुवाद :
एक बार विक्रमादित्य ने नगर में भ्रमण के समय एक मरणासन्न (मरने के निकट) रोगी को देखा। उसको देखने से मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। इसलिए माया मोह से भरे संसार को जानकर वह महामन्त्री को राज्यभार सौंपकर वन चले गये।
वने सः कठिना तपस्याम् आरब्धवान्। तस्य समीपे एव एकः महात्मा अपि तपस्यारतः आसीत्। महात्मा तम् अवदत्, “राजन्! भवान् तु यथानीति राजधर्मस्य पालनं करोतु। धर्मानुकूलं शासनम् अपि धर्म एव भवति” इति स महात्मा विक्रमादित्यम् उपदिष्टवान्। विक्रमः अवदत्-“नहि महात्मन्! तपसा एव परलोकः साध्यते, कर्मणा नेति।” महात्मा अवदत्, “राजन! राज्ञः धर्मः प्रजापालनं, शासनम् एव अस्ति तपस्या तु महात्मानां कर्म इति।” इत्युक्त्वा महात्मा राजानाम् पृष्टवन्-कर्म-तपस्ययोः कः भेदः?
अनुवाद :
वन में उन्होंने कठिन तपस्या आरम्भ कर दी। उनके पास में एक महात्मा भी तपस्यारत (तपस्या में लगे) थे। महात्मा ने उनसे कहा, “हे राजन्! आप तो नीति के अनुसार राजधर्म का पालन करो। धर्म के अनुकूल शासन भी धर्म ही होता है।” इस प्रकार उस महात्मा ने विक्रमादित्य को उपदेश दिया। विक्रम ने कहा-“नहीं महात्मन्! तपस्या से ही परलोक प्राप्त होता है, कर्म से नहीं।” महात्मा ने कहा, “हे राजन्! राजा का धर्म प्रजा का पालन और शासन ही है, तपस्या तो महात्माओं का काम है।” ऐसा कहकर महात्मा ने राजा से पूछा-कर्म और तपस्या में क्या भेद है?
राजा अवदत्-कर्मणः स्थानम् भिन्नम् परं तपस्या स्वर्गप्राप्तेः साधनम्। एतच्छ्रुत्वा महात्मा हसन् अवदत्-“राजन् ! मनुष्यः उत्तमानि कर्माणि कृत्वा अपि परलोकं साधयितुम् शक्नोति।” अनन्तरम् महात्मा योगबलेन तत्रैव यमलोकस्य दृश्यं विक्रमं दर्शितवान्। दृश्ये यमराजः दूतान् पृच्छति-“एतस्य कर्म कीदृशम् ?” एकः दूतः अवदत्-“कर्मणां लेखनं तु चित्रगुप्तस्य पार्वे अस्ति।” क्षणं विचार्य यमराजः दूतान् आदिष्टवान् यत्-“यदि एतस्य कर्माणि उत्तमानि सन्ति तर्हि स्वर्गस्य द्वारम् उद्घाटयतु यदि कर्माणि अधमानि, तदा बलात् नरके पातयतु।”
अनुवाद :
राजा ने कहा-कर्म का स्थान भिन्न है परन्तु तपस्या स्वर्ग प्राप्ति का साधन है। ऐसा सुनकर महात्मा हँसते हुए बोले-“हे राजन्! मनुष्य अच्छे कर्म करके भी परलोक सिद्ध कर सकता है।” इसके बाद महात्मा ने योग के बल से वहीं यमलोक का दृश्य विक्रम को दिखाया। दृश्य में यमराज दूतों से पूछ रहे हैं-“इसका कर्म कैसा है? एक दूत ने कहा-“कर्मों का लेखा तो चित्रगुप्त के पास है।” कुछ देर विचार करके यमराज ने दूतों को आदेश दिया कि-यदि इसके कर्म अच्छे हैं तो स्वर्ग का द्वार खोल दो यदि कर्म बुरे हैं तो जबरदस्ती नरक में डाल दो।”
इदं दृश्यं दृष्ट्वा विक्रमः ज्ञातवान् यद्-‘सदाचारः एव तपस्या, सत्कर्म एव धर्म’ इति। अनन्तरं सः तम् महात्मानम् प्रणम्य, श्रेष्ठाचरणस्य प्रतिज्ञां कृत्वा राजधानीम् उज्जयिनीम् आगतवान्। आगत्य धर्मानुकूलंनीतिपूर्वकम् प्रजापालनपुरस्सरं शासनं कृतवान्। सः अद्यापि लोके सत्कर्मणा एव प्रसिद्धः। तस्य जीवनस्य ध्येयवाक्यम् आसीत्-‘सत्कर्म एव धर्मः।’
अनुवाद :
इस दृश्य को देखकर विक्रम जान गये कि-“सदाचार (अच्छा व्यवहार) ही तपस्या है और सत्कर्म (अच्छे कर्म) ही धर्म।” इसके बाद वह उन महात्मा को प्रणाम करके, श्रेष्ठ आचरण की प्रतिज्ञा करके राजधानी उज्जयिनी आ गये। आकर धर्म के अनुसार नीतिपूर्वक प्रजा पालन को प्रमुखता देते हुए शासन किया। वह आज भी संसार में अच्छे कर्म से ही प्रसिद्ध हैं। उनके जीवन का ध्येय वाक्य था-‘सत्कर्म ही धर्म है।’